Monday 11 May 2020

एक उत्तरभारतीय की व्यथा

(एक बार पूरा लेख अवश्य पढ़ें🙏)

              क्या हमने कभी सोचा है...आखिर ऐसी क्या वजह रही होगी जो उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के लोग इतनी बड़ी संख्या में महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में बसने के लिए मजबूर है? जब भी हमने इसका उत्तर जानने की कोशश की तब रोजी-रोटी, काम-धंधा, मजदूरी इत्यादि जैसे ही जवाब सामने आए।
                         लेकिन क्यों? क्या उत्तरप्रदेश और बिहार का अपना कोई इतिहास नहीं है! जिस माटी को राम, कृष्ण और बुद्ध ने पावन किया हो। जिस धरती पर गंगा, यमुना जैसी नदियाँ बहती हों। आखिर  वहाँ के लोग आज दर-दर भटकने को क्यों विवश हैं। यकीन नहीं होता कि जिस भूमि का इतना पावन और अद्भुत इतिहास हो वहाँ के लोग आज मारे-मारे फिर रहे हैं।
            इसका क्या कारण हो सकता है? मेरे हिसाब से तो इसका एक ही कारण है- सरकारों की नाकामी। अपने राजनीतिक लाभ के लिए आज तक यहाँ की सरकारों ने इन राज्यों का विकास ही नहीं होने दिया। उन्होंने केवल अपनी जेबें भरी और जातिवाद-वंशवाद को बढ़ावा दिया। और कुछ दोष तो उन लोगों का भी है जिनकी "चच्चा हमारे विधायक है" और "फलाना परधान अपना ही है" वाली सोच ने भ्रष्टाचार आदि को बढ़ावा दिया। जिसके कारण गरीबों का और अधिक शोषण होता गया। शायद इन्हीं कारणों से हमारे माता-पिता की पीढ़ी वाले लोगों ने अपनी पहचान और अपनी माटी को छोड़कर  दूसरे राज्यों में बसेरा करना शुरू कर दिया। खेती जैसे मुख्य पारम्परिक और समृद्ध व्यवसाय को छोड़कर शहरों में गुलामी करने को मजबूर हो गए। जिसके कारण इन्हें समय-समय पर अपमान के कडवें घूँट भी पीने पड़े।
                   आज हमें गर्व होता है कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों के विकास में उत्तरभारतीयों का एक विशेष योगदान है, परन्तु हमें इस बात का मलाल भी होना चाहिए कि हम अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ नहीं  कर पा रहें। जिस तरह हमने महाराष्ट्र को अपनी कर्मभूमि मानकर, यहाँ के भाई-बंधुओं को अपना मानकर यहाँ के विकास में योगदान दिया है। उसी प्रकार अब समय आ गया है कि हमें अपनी जन्मभूमि के लिए भी इसी प्रकार की मेहनत और लगन लगानी पड़ेगी जिससे हम सब मिलकर उत्तरप्रदेश और बिहार को एक समृद्ध और विकसित राज्य बना सके।
        जैसा कि कहा गया है,
     "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
            आशा है कि मेरी उम्र के कई नवयुवक होंगें जिनकी भी यही लालशा होगी कि वें अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ कर सकें। वो भी गाँवों में उद्योगों को बढ़ावा दिला सके और कृषि कार्य को और अधिक आधुनिक एवम उन्नत बना सकें, जिससे फिर किसी को शहरों की ओर पलायन न करना पड़े। आज हममे से कई लोग होंगे जिन्होंने हमारे माता-पिता के शहरों की ओर पलायन के कारण अपने गाँवों को खो दिया है, एक सुनहरे बचपन को खो दिया है। हमें चाहिए कि हम आने वाली पीढ़ी के साथ ऐसा न होने दें।
                आज हमारी माटी को हमारी आवश्यकता है, जो हम सब से अपना कर्ज अदा करने को कह रही है, आज हम सब नवयुवकों को मिलकर प्रण करना चाहिए कि हम अपना पूरा-पूरा योगदान दें। ताकि जो परिस्थिति आज उत्तपन्न हुई है वो भविष्य में कभी ना उत्तपन्न हों। जिस प्रकार आज मजदूरों को भूखे-प्यासे भटकना पड़ रहा है, अपने ही घर जाने के लिए मौत से लड़ना पड़ रहा है, मानव सभ्यता में आगे ऐसा कभी ना हो।

(नोट: एक उत्तरभारतीय होने के नाते इस लेख में मैने अपने व्यक्तिगत मत रखें है, यदि किसी को भी किसी भी प्रकार की ठेस पहुंची हो तो हृदय से क्षमा प्राथी हूँ।  महाराष्ट्र राज्य और यहाँ के बन्धुओं से तो मेरी किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं है बल्कि मैं तो इसे अपनी कर्मभूमि मानकर जीवन भर इसकी सेवा करने के लिए तत्पर रहूँगा।)
     धन्यवाद🙏

Friday 1 May 2020

"सनातन हिन्दू धर्म में प्रसार एवं एकता का अभाव"

एक बार अवश्य पढ़े।🙏

जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते देखता हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुस्लिम परिवारों की ये अच्छी चीज़ है कि वो अपना धर्म और अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी में ज़रूर देते हैं। कुछ पुचकार कर तो कुछ डराकर, लेकिन उनकी नींव में अपने बेसिक संस्कार गहरे घुसे होते हैं।

यही ख़ूबसूरती सिखों में भी है। एक बार छुटपन में किसी ने एक सरदार का जूड़ा पकड़ लिया था। उसने उसी वक़्त तेज़ आवाज़ में न सिर्फ समझाया ही नहीं, धमकाया भी था। तब बुरा लगा था, लेकिन आज याद करते है, तो अच्छा लगता है।

हिन्दू धर्म चाहें कितना ही अपने पुराने होने का दावा कर ले, पर इसका प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक सीमित होता जा रहा है। मैं अक्सर देखता हूँ कि मज़ाक में लोग किसी ब्राह्मण की चुटिया खींच देते हैं। वो हँस देता है।

एक माँ आरती कर रही होती है, उसका बेटा जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है, लड़का कूल-डूड है, उसे इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है।

बेटी इसलिए प्रसाद नहीं खाती कि उसमें कैलोरीज़ ज़्यादा हैं, उसे अपनी फिगर की चिंता है।

छत पर खड़े अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो लड़के हँसते हैं।

दो वक़्त पूजा करने वाले को हम सहज ही मान लेते हैं कि साला दो नंबर का पैसा कमाता होगा, इसीलिए इतना अंधविश्वास करता है। 'राम-राम जपना, पराया माल अपना' ये तो फिल्मों में भी सुना है।

इस पर माँ टालती हैं 'अरे आज की जेनरेशन है जी, क्या कह सकते हैं, मॉडर्न बन रहे हैं।'

पिताजी खीज के बचते हैं 'ये तो हैं ही ऐसे, इनके मुँह कौन लगे'।

नतीजतन बच्चों का हवन-पूजा के वक़्त हाज़िर होना मात्र दीपावली तक सीमित रह जाता है।

यही बच्चे जब अपने हमउम्रों को हर शनिवार गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर रविवार चर्च में मोमबत्ती जलाते देखते हैं, तो बहुत फेसिनेट होते हैं। सोचते हैं ये है असली गॉड, मम्मी तो यूंही थाली घुमाती रहती थी। अब क्योंकि धर्म बदलना तो पॉसिबल नहीं, इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं।

शायद हिन्दू अच्छे से प्रोमोट नहीं कर पाए। शायद उन्हें कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई। शायद आपसी वर्णों की मारामारी में रीतिरिवाज और हवन पूजा-पाठ 'झेलना' सौदा बन गया।

वर्ना...

सूरज को जल चढ़ाना सुबह जल्दी उठने की वजह ले आता है।

सुबह हवन-पूजा करना नहाने का बहाना बन जाता है।
और मंदिर घर में रखा हो तो घर साफ सुथरा रखने का कारण बना रहता है।
भजन बजने से जो ध्वनि होती है वो मन शांत करने में मदद करती है।
तो आरती गाने से कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ता है।
हनुमान चालीसा तो डर को भगाने और शक्ति संचार करने के लिए सर्वोत्तम है।
सुबह हवन करके निकलो तो पुरा बदन महकता हैं, टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है। प्रसाद में मीठा खाना तो शुभ होता है... भई, टीवी में एड नहीं देखते.?

संस्कार घर से शुरु होते हैं। जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं। इस भटकन में जब आपको कोई कुछ ग़लत समझा जाता हैं, तो आप भूल जाते हो कि आप उस सनातन सभ्यता का मज़ाक बना रहे हो, जिस पर आपका पुरा संसार टिका है, जिस पर आपके माता-पिता का विश्वास टिका है।

कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है, लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं दे कि  सत्य_सनातन_वैदिक_धर्म का मज़ाक बनाये।

कम से कम मेरे लिए तो हिन्दू होना कोई शर्म की बात नहीं रही। आपके लिए हो भी तो मज़ाक न बनाएं, चाहें जिसकी आराधना करें लेकिन धर्म को धिक्कारें नही, कमजोर ना बनाएं।

हर वर्ग के मेरे भाईयों से अनुरोध है कि जीवन मे एक बार श्रीमद्भागवत गीता अवश्य पढ़े, अपने बच्चों को रामायण के बारे में महाभारत के बारे में बताएं या फिर आजकल दूरदर्शन पर ज़रूर दिखाए।🙏🕉️

(नोट:- यह पोस्ट मुझे बेहद पसंद आयी इसी कारणवस मैंने इसे कॉपी किया है और इसे पोस्ट किया ताकि हम लोगों  को अपनी खामियां समझ आए।)

पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...