दर्द कागज़ पर,
मेरा बिकता रहा,
मैं बैचैन था,
रातभर लिखता रहा..
छू रहे थे सब,
बुलंदियाँ आसमान की,
मैं सितारों के बीच,
चाँद की तरह छिपता रहा..
अकड होती तो,
कब का टूट गया होता,
मैं था नाज़ुक डाली,
जो सबके आगे झुकता रहा..
बदले यहाँ लोगों ने,
रंग अपने-अपने ढंग से,
रंग मेरा भी निखरा पर,
मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा..
जिनको जल्दी थी,
वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,
मैं समन्दर से राज,
गहराई के सीखता रहा..!!
साभार : इन्टरनेट
(चंद पंक्तियाँ जो दिल को गहराई से छू गयी ,जिनको आप लोगों से साझा करते हुए खुद को रोक न सका।
लेखक जी को मेरी ओर से इन पंक्तियों के लिए धन्यवाद ,क्या खूब लिखा है आपने)