Sunday 23 October 2022

मिट्टी को जब-जब चाक धरा...


              मिट्टी को जब-जब चाक धरा...



मिट्टी को जब-जब चाक धरा,
रच बर्तन में आकार गढ़ा,
बर्तन मिट्टी से बचा धरा,
क्यों मैं कुम्हार लाचार पड़ा?

क्या याद तुम्हें वह गुल्लक है,
पीते लस्सी वह कुल्हड़ है,
रुक पीते पानी मटके का,
क्या याद तुम्हें वह नुक्कड़ है?

अब याद न तुमको है आती,
थी चाय जो कुल्हड़ में भाती,
मिट्टी की खुशबू को लाती,
वह प्यार धरा का बतलाती। 

वह शीतल जल देने वाली,
अब कहाँ सुराही चली गयी,
जगमग मिट्टी के दीपक से,
वह राम दिवाली कहाँ गयी?

अक्सर रोता हूँ रातों में,
अपने पुश्तैनी कामों में,
काम न अब यह काम आता,
त्योहारों पर बस दीप बनाता,

बेच न उनको पूरा पाता,
रौनक झालर सी दे पाता,
हृदय प्रश्न अब अक्सर आता,
क्यों मिट्टी के दिये बनाता?

इस जग से मैं हूँ बहुत लड़ा,
कर रहा प्रतीक्षा हूँ खड़ा,
फिर से मुझ तक तुम आओगे,
मिट्टी के दिये जलाओगे!

- कवि बीरेन्द्र कुमार

Copied

(इन मार्मिक पंक्तियों को अपने ब्लॉग पर कॉपी करने से खुद को रोक न पाया।)

कुम्हारी एक कला थी, हमसे छूट गई।
ख्वाइशें माटी की, माटी में ही टूट गई।।
:- संदीप प्रजापति

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