Sunday 30 August 2020

काला रंग

माना बदसूरत काले 

पर हम भी रुतबे वाले 

जाना है तुमने ये कहां 

दुनिया के जो रखवाले 
काले हैं गीता वाले 

जिनके हाथों में दो जहाँ 

वेदों  के अक्षर काले 

पूजा के पत्थर काले 

काला है तारों का मकान 



लाखों में एक हो माना 

पर ये तो सोचो जाना 

मेरे ही रंग से हो हसीं 

जुल्फ़ें लहराती काली 

आँखें वो सुरमें वाली 

हाथों का धागा देख लो 

सोती हो तुम काले में 

छिपती हो तुम काले में 

फिर हमसे इतना दूर यूँ 

आँखें बंद करके देखो 

सपनों के पीछे देखो 

मेरे ही रंग के साथ हो 


चेहरे का नूर बढ़ाये 

छोटा जो तिल पड़ जाये 

परियां भी देखें आपको 

काली नजरों से बचाये 

काला टीका जो लगाए 

अब तो समझो ना बात को 


आओगे तो जानोगे 

रहते हो ऐसे दिल में 

जैसे हो मेरा सब तेरा। 

तुमसे लम्हा जीता हूँ 

तुमको  खुद में बनता हूँ 

अब कैसे दूँ मैं इम्तिहां। 


ग़र जाना है तो जाओ 

इतराना है इतराओ 

इतना कहना पर जो मिलें। 

बिजली बादल को छोड़े 

पानी  झरने को छोड़े 

दिन भी रातों को छोड़ दे।  

लक्ष्मी, नारायण छोड़ें 

गौरी,शंकर को छोड़े 

अब क्या बोलोगे बोल दो 


आज हैं हम कल ना होंगे 

फिर ऐसे पल ना होंगे 

जो तुम पर इतना हो फना।  

समझो ना समझो तुम पर 
अब हैं सब बातें तुम पर 

जितना कहना था कह दिया। 


:- कवि संदीप द्विवेदी जी

(एक बहुत ही सुंदर कविता , जो किसी के भी हृदय को स्पर्श कर जाए।)

Sunday 9 August 2020

जीवन :- झोपड़पट्टी में

                           झोपड़पट्टी
                     
           जैसा कि हम सभी ने देखा है,झोपड़पट्टीयाँ गन्दी और मैली-कुचैली ही होती हैं। इन गन्दी बस्तियों को देखकर हम सोचते हैं कि काश यह न होते तो हमारा शहर और अधिक सुंदर होता। शायद कुछ हद तक यह सच भी है। झोपड़पट्टियों में लोग छोटे-छोटे मकानों में रहते हैं, जिन्हें कुछ लोग माचिस की डिब्बियों के समान ही उपमा देते हैं। अधिकतर मकान तो टिन, पतरों और बाँसों के ही बने होते हैं और कुछ ही मकान पक्के होते हैं। इन बस्तियों की सँकरी गलियों को देखकर किसी का भी जी ऊब जाए परन्तु इन्हीं बस्तियों में कई लोगों का जीवन बसता है।
          वैसे तो ऐसे इलाकों में बिजली, पानी और सामान्य जरूरतों की कई समस्याएं होती ही हैं, परन्तु इन सब में सबसे महत्वपूर्ण होता है, शौचालय की समस्या। आज केवल मुम्बई जैसे शहर में ही अनेकों ऐसी बस्तियाँ मौजूद हैं जहाँ शौचालय नहीं है, और यदि है भी तो बहुत बुरी अवस्था में होती है। इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग गन्दगी की समस्या से भी अछूते नही रहें हैं और इसी गन्दगी के कारण कई रोगों का भी प्रसरण होता है।
            यदि बात की जाए इन बस्तीवासियों के रहन-सहन की तो यह बहुत ही बद्दतर होती है। ये लोग अशिक्षित होने के कारण कोई ढंग का काम नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण इन्हें मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालना पड़ता है। ऐसी बस्तियों में सामाजिक अव्यवस्था होने के कारण नौयुवक नशे, चोरी और अश्लीलता जैसे कुकृत्यों के जाल में फँस जाते हैं और अपना जीवन व्यर्थ कर बैठते हैं। वैसे कुछ ऐसे भी जुझारू लोग होते हैं ,जो अपनी इस गरीबी और बदहाली  से भरी जिंदगी से प्रेरणा लेकर अपनी आर्थिक स्तिथि को सुधारने के लिए जी - जान लगा कर अपने सपनों को पूरा करते हैं। ऐसे लोग अत्यधिक संवेदनशील और कर्मठ होते हैं।
                    इन झोपड़पट्टियों का एक अनोखा पहलू यह भी है कि यहाँ जीवन कठिन तो होता ही है परन्तु रोमांचक भी होता है। ऐसी बस्तियों के बच्चों का बचपन सबसे सुहावना होता है, वे बचपने का पूर्ण रूप से आनन्द ले पाते हैं, वे लोग छोटी-छोटी चीज़ों में ही खुशियाँ खोज लेते है। जैसा की सामान्यतः विकसित समाज में नहीं होता है,जहाँ लोग एक दूसरे तक को नहीं जानते हैं, अपने पड़ोसी तक को नहीं पर इन बस्तियों में ऐसा नहीं होता है, यहाँ तो लोग एक दूसरे को परस्पर जानते भी हैं और आपसी मेल-मिलाप भी रखते हैं तथा सारे तीज-त्यौहार एक साथ हँसी खुसी मनाते हैं।
             बड़े - बड़े शहरों में बसने वाली ये छोटी - छोटी झोपड़पट्टीयाँ उन शहरों के लिए समस्या नहीं बल्कि कई जिंदगियों के लिए समाधान हैं। जिनके छोटे-छोटे घरों में बड़े-बड़े सपने पलते हैं।

धन्यवाद!



पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...