तुम आना जरूर...
सुनो,
आओगी जब तुम
लेते आना मेरी उन सारी खुशियों को,
जो मैंने तुम्हारे आश में
तुम पर उधार रखे हैं।
उन सारी खामोशियों की वजह लेते आना,
जिन्हें मैं बेवजह ही ढो रहा हूँ।
हर उस दर्द का मरहम बनकर आना,
जो मैंने हर किसी से छिपाए हैं।
हर उस उम्मीद की सच्चाई बनकर आना,
जो मैंने तुमसे लगाए हैं।
के मेरे सारे त्यागों प्रतिक्षाओं का,
तुम हिसाब बन कर आना।
एक वक्त होगा इश्क़ मेरा,
तुम बेहिसाब बन कर आना।
आना ऐसे की जैसे,
आती है तुम्हारी स्मृति।
आकर छा जाना मेरे मानस पर
जैसे किसी मरुस्थल में छाती हो वृष्टि।
सुनो, तुम आओगी ना?
सारे ख्वाबों को सच कर जाओगी ना?
न आ सको तो तुम मत आना,
परन्तु आकर फिर न जाना।
मरु को बंजर ही रहने देना
पर झूठा प्रेम उपवन न लगाना।
:- संदीप प्रजापति
( हिंदी साहित्य जगत में प्रेम रस का अपना एक विशेष महत्त्व है। प्रेम रस की विधा और प्रेम की क्षुधा को जीने का कविताओं से बेहतर कोई दूसरा विकल्प खोज पाना तो शायद ही मुमकिन हो। यह कविता उन सभी हिंदी भाषी पाठक को समर्पित है, जो जीवन में प्रेम की आश को छोड़ना नहीं चाहते।और हाँ शायद छोड़ना भी नहीं चाहिए। क्या पता कब जीवन करवट ले और आपके हिस्से भी प्रेम आ जाए। राधा, रुक्मिणी वाला न सही पर मीरा वाला तो आ ही जाए।)
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