Sunday 26 December 2021

परिवार में बलात्कार

                   

परिवार में बलात्कार

            उस वक्त आप कैसा महसूस करते जब कोई आपका अपना परिचित ही आपके साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे कुकृत्य करता। जी हाँ आपने बिल्कुल सही पढ़ा। आज मैं आपको एक ऐसी ही घटना का वृत्तांत बताने जा रहा हूँ जो किसी के लिए भी जीवन को झंकझोर देनेवाला और अविस्मरणीय हो सकता है।
            हमारे भारतीय समाज में जहाँ पिता के भाई यानी चाचा को भी पिता का ही स्वरूप माना जाता है। उसी समाज में कुछ ऐसे विकृत मानसिकता वाले लोग भी रहते हैं जो इस रिश्ते को भी शर्मसार करते नहीं चूकते। अपनी राक्षसी प्रवृत्ति, पशुता, चरित्रहीनता और अपने वैसिहत के कारण वे लोग भाभी-देवर और चाचा-भतीजा/भतीजी जैसे रिश्तों के मर्यादा को भी लाँघ जाते हैं। अपनी हवस और वासना में लिप्त होकर न जाने कई जिंदगियों को शारीरिक और मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त और शर्मसार करते हैं।
        इस कहानी की शुरुआत होती है उत्तरप्रदेश के एक छोटे से गाँव से। जहाँ अनुसूचित जनजातियों के टोले का एक बेहद गरीब परिवार रहता था। परिवार का मुखिया, उसकी पत्नी और पाँच जीवित संतान। जिनमें से दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ। जीवित इसलिए कहा गया क्योंकि इनसे पहले कई संतानें काल के गाल में समा चुकी थीं। आजीविका का कोई प्रमुख स्रोत न होने के कारण परिवार का पालन-पोषण मुश्किल से होता था। बस किसी तरह से गुजर-बसर हो जाता। मेहनत-मजूरी करने के कारण बस जीवित भर थे। इसी तरह समय बीतता गया और परिवार का बड़ा बेटा आर्थिक परिस्थिति को भांपते हुए शहर की ओर रुख करने लगा। शिक्षित न होने के कारण शहर में कोई भी काम कर लेता। जिससे दो पैसे मिल जाते थे। खा-पहन कर जो पैसे बचते उसे वह गांव में माँ-पिताजी को भेज देता।
       यह देखकर परिवार बहुत खुश होता था। माँ-पिता को लगता कि जीवन अब सुधर सकता है। पर नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। एक ओर बड़ा बेटा दिन-रात मेहनत करता दो पैसे कमाता और बचाता था तो दूसरी ओर छोटा बेटा आवारापन, नाकारा, कुलीनता और न जाने कितने-कितने दुर्गुणों में व्यस्त रहता। आए दिन कोई न कोई ओराहना लगा रहता। परिवार का संबल होना तो दूर वह तो बस नाक कटाता रहता था। बड़े बेटे की मेहतत और लगन देखकर कुछ समय बाद पिता ने उसका ब्याह रचा दिया। अब परिवार में एक और सदस्य बढ़ चुका था यानी जिम्मेदारी और अधिक हो चुकी थी। जिसके कारण उसे अपनी धर्मपत्नी को वहीं गांव में ही छोड़ शहर जाकर काम करना पड़ता। इन सब में उसका छोटा भाई बड़े भाई के न होने से घर में आयी नई बहू यानी अपनी भाभी से हंसी-ठिठोली के बहाने ही दुर्व्यवहार करता, आए दिन कहा-सुनी कर लेता तो कभी हाथ छोड़ देता। इन सबसे अधिक तो कभी स्त्री की गरिमा और मर्यादा के परे जाकर उसे अनचाहा स्पर्श कर देता। इससे तंग आकर  वह अपने पति के साथ शहर आकर रहने लगी। कुछ पल जीवन सुखमय बिता। उसे भी संतान प्राप्ति हुई। अब तक उसकी भी कुल तीन संतानें हो चुकी थीं।  और वहाँ छोटे बेटे की करतूतों से परेशान पिता ने अपने बड़े बेटे से विनती करकर कहा कि इसे भी अपने साथ रख लो। कोई काम-धंधा सिखाकर आदमी बना दो। पिता की आज्ञा को बड़ा बेटा नकार न सका। परंतु इस खबर से उसकी पत्नी जरूर अनमना गई और क्रोधित हुई।
       अब वह आवारा छोटा बेटा भी शहर में बड़े भाई के पास आ चुका था। उसकी करतूत अपनी आँखों से बड़ा भाई दररोज देखता। हालाँकि अब उसकी भाभी न तो उससे कोई मतलब ही रखती थी न ही बोलती-चालती थी। मानो की अब उनमें कोई संबंध ही न हो। शहर आकर बहुत समय हो चुका था पर अब भी वो न सुधरा था। कोई एक काम करने में न दिल लगाता और न मेहनत ही करता। हर रोज आवारागर्दी , कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा तो कभी किसी से। अब तो उसके चलते बड़े भाई को थाना, चौकी और दरोगाओं के भी दर्शन हो चुके थे। उसके कुकृत्य इतने बढ़ चुके थे कि आस-पड़ोस की लड़कियों/महिलाओं को भी फांस लेता और अपने मंसूबे पूरे कर लेता। उसे यह सब कुछ बहुत सहज लगने लगा था। उसके इस घिनौने कारनामों की हद तो तब हो गई जब वह अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए अपने ही घर में अपने बड़े भाई के बच्चों जो कि अभी महज १०-१२ बरस के ही थे। उनके साथ भी बड़ी सहजता से दुष्कर्म करने लगा। वह उन्हें जबरदस्ती नीली-पीली सीडियों के चलचित्र दिखाता और वही कृत्य उनसे भी  हिंसात्मक होकर करवाता। न करने पर गला घोंटता तो कभी बुरी तरह पिटता। इसी तरह मार-पीट और डरा धमका कर उनका मुँह बंद रखवाता था। डर और नासमझी के कारण बच्चे भी कुछ न कह पाते और यह जघन्य अपराध और कुकर्म चुपचाप सहते रहते।और उसकी वासना का शिकार होते रहते। कुछ वर्षों बाद उस मनुष्यरूपी पशु की भी शादी हो जाती है और उसकी पत्नी भी उसके इस आचरण, दुर्व्यवहार और मानसिकता से परेशान होकर अपने ही भाग्य को कोसती रहती।

अब आपसे कुछ सवाल:

१. क्या ऐसे जघन्य अपराध करने वाले लोगों को जीने का अधिकार मिलना चाहिए?
२. क्या इन लोगों के कारण ही आज समाज से रिश्तों-नातों से भरोसा उठ रहा है?
३. इस तरह की घटनाओं से बचने और आगे समाज में ऐसी घटनाएं न हो इसके लिए आपकी क्या राय है?
४. उन बच्चों को ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए था या उनकी जगह आप होते तो क्या करते।
५. क्या इस मामले में देश में कठोरतम कानून की आवश्यकता है?
६. इस तरह के पारिवारिक कुकर्म की घटनाओं को कैसे रोका जा सकता है, अपने विचार बताएं।

अपने विचार जरूर साँझा करें। शायद किसी की जिंदगी नरक होने से बच जाए।

(यह लेख किसी की व्यक्तिगत भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए बिल्कुल नही है। यह सिर्फ कुछ विकृत मानसिकता के लोगों को केंद्रित करते हुए है न कि भारतीय रिश्ते-नातों और सम्बन्धों को शर्मसार करने या नीचा दिखाने के लिए। किसी को लेख के प्रति कोई आपत्ति हो तो जरूर साझा करें।)

Friday 10 December 2021

शिक्षा: मजदूर की आँखों का सपना

                 शिक्षा: मजदूर की आँखों का सपना

     एक बालक मात्र १२-१३ की उम्र में बड़े शहरों का रुख करने लगा था। अभी बचपना छूटा ही न था, खेलकूद से मन भरा ही न था कि जिम्मेदारियों का बोझा सिर आ चुका था। साँवला रंग और ढीली-ढाली कद काठी का वह बालक लेकिन ईमानदारी, मेहनती और सच्चाई के गुणों को जानने वाला। निकल पड़ा था अपने गाँव-घर और माँ-बाप से दूर शहरों की ओर मजदूरी दिहाड़ी की तलाश में। जहाँ दो जून का खाना मिलता दो पैसे मिलते वहीं रह लेता मजदूरी कर लेता। कोई ढंग का काम तो मिलने से रहा, शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता जो न था। इच्छा तो थी शिक्षा पाने की परन्तु आर्थिक हालात ऐसे न थे कि वो शिक्षा पा सके। इसीलिए काम करता और जो पाता उसी में खुश रहता।
       वह कुछ वयस्क हुआ ही था कि उसका ब्याह हो गया। अब सिर पर और एक जिम्मेदारी आ गयी थी। जिम्मेदारी क्या मानो बोझ। खुद के पेट पाले नहीं पल रहे थे कि अब घर गृहस्थी भी बसाना पड़ा। देखते ही देखते अब पुत्र रूप में एक और जिम्मेदारी आ गयी थी। परंतु अब तक वह इतना साहसी तो हो चुका था कि सारी जिम्मेदारियों को निर्भीकता से उठा ले। कुछ समय बिता आर्थिक तंगी अब भी वैसी ही बनी थी परंतु अब पारिवारिक कलह भी होने लगा। मजबूरन अपना परिवार लेकर उसे माँ-पिता से अलग हमेशा के लिए किसी अनजान शहर के एक छोटी-सी झुग्गी-झोपड़ी में बसना पड़ा। जीवन की एक बिल्कुल शुरू से नई शुरुआत हुई। जस-तस गुजर बसर होने लगा। कई मौसम बदले,बरस बदलते गए अब वह तीन संतानों का पिता हो चुका था। परंतु आर्थिक तंगी बरकरार ही थी। शिक्षित न होने का मलाल जीवन भर उसे ज्यों-त्यों सताता रहता था। इसी कारण उसने अब प्रण ले लिया था कि उसे चाहे जीवन भर दुख झेलना पड़े। चाहे जो हो जाए वह अपनी संतानों को जरूर शिक्षित  करेगा। वह उन्हें पढ़ा-लिखा कर एक प्रतिष्ठित व सम्मानजनक व्यक्तित्व वाला जीवन प्रदान करेगा। यह दृढ़ संकल्प सिर्फ उसका ही नहीं बल्कि उसकी पत्नी का भी था। क्योंकि वो भी धेला बराबर भी शिक्षित न थी परंतु गृहस्थी में निपुड थी और शिक्षा का महत्त्व भलीभाँति जानती थी।
               दोनों जी तोड़ अथाह मेहनत करते और उसी से अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण करते। जिंदगी की मूलभूत जरूरतों में कटौती कर अपना पेट काट-काट कर दोनों अपनी संतानों को खूब पढ़ाने का सपना संजोते। उन्होंने कुछ रो-धोकर तो कुछ सिफारिशों के सहारे अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती तो करा दिया। पर आए दिन पढ़ाई के खर्चे और  स्कूल के शुल्क अदा कर पाना उनके बस की बात न हो पा रही थी। नतीजतन दाखला रद्द होने की नौकत तक आ गयी। न चाहते हुए भी कर्जा लदकर  बच्चों की पढ़ाई जारी रखी गई। हालाँकि बच्चे भी पढ़ाई-लिखाई में होनहार ही थे। अभावों के चलते बस जीवन के दूसरे आयामों में थोड़ा पीछे थे। मगर शैक्षणिक प्रदर्शन बेहतर था। आए दिन कक्षा में उनका हुनर बोलता था। शिक्षक काफी प्रभावित थे उनकी प्रतिभा से। मगर नियति पग-पग पर इनकी परीक्षा लेती और इन्हें जीवन पथ पर मजबूती से डटे रहने का सबक सिखाती।
                      वक्त के साथ-साथ दोनों दंपति उम्र दराज होते गए। मजदूरी अब किए नहीं जा रही। घरवाली अलग बीमार रहती। घर चलाना मुश्किल होता जा रहा था। परंतु व्यक्ति ने इस पल भी हार न मानी और अपना सपना जीवित रखा। किसी भी परिस्थिति में अपनी संतानों की शिक्षा को बाधित न होने दिया। चूँकि अब सन्तानें भी इतनी बड़ी हो चुकी थीं कि अपनी आर्थिक स्तिथि को समझ सकें और अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठा सकें। परिणामस्वरूप उन बच्चों ने भी कुछ काम करना शुरू कर दिया और साथ ही साथ अपने पिता के सपने को भी जीवित रखा। पैसे कमाने में हाथ बंटाने के साथ साथ वे अपनी पढ़ाई को भी बखूबी जारी रखते और इतना ही नहीं सभी शैक्षणिक मापदण्डों में अव्वल ही रहते। जिससे बूढ़े दम्पत्ति को सांत्वना मिलती की ईश्वर एक न एक दिन उनकी मेहनत का फल जरूर देंगे और उनका सपना भी साकार होगा।
              यह कहानी किसी सफल व्यक्तित्व या किसी  व्यक्ति की असाधरण सफलता की नहीं है बल्कि यह कहानी हमारे देश के सबसे पिछड़े तबके के ऐसे हजारों-लाखों गरीब-मजदूर लोगों के संघर्ष की कहानी है। जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल अपनी संतानों को शिक्षित कर देना ही होता है। वे इसमें ही अपने जीवन की सार्थकता को मानते हैं। और बस इसी एक संकल्प के लिए अपनी परंपरागत लीक से हटकर कुछ सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए जीवन भर जीवनभर संघर्ष करते हैं। हालाँकि उनके सपनों का सच होना न होना यह तो ईश्वर के हाथों ही है। परंतु ऐसे महान विचारधारा वाले हर उस व्यक्ति को मेरा सहृदय नमन है। ईश्वर से प्रार्थना है कि किसी ऐसे ही सपने को पूरा करने का भागीदारी मैं बन सकूँ।

Friday 3 December 2021

मित्र : एक सीख

मित्र : एक सीख

                  "हर सुखी नवविवाहित जोड़े में एक ऐसा तीसरा व्यक्ति भी होता है, जो बेवजह नियती के हाथों का मोहरा बनता है और उसके मृदु हृदय में प्रेम के बदले केवल रह जाती हैं स्मृतियाँ।"
                          जी हाँ आज मैं आपको एक ऐसी ही कहानी बताने जा रहा हूँ जिसमें एक ओर केवल मासूमियत और प्रेम था तो दूसरी ओर केवल छल और उपयोगिता।
                  तो चलिए शुरू करते हैं, तकरीबन पाँच-सात साल पहले की बात है। जब मैं, मेरा घनिष्ठ मित्र और उसकी तथाकथित प्रेमिका हमसब कक्षा नौं या दस में पढ़ते थे। उस वक्त हमारी उम्र लगभग कोई १४-१५ बरस की रही होगी, कोरा बचपन जिसमें केवल उल्हास और उमंग था। मेरा मित्र जो कि कक्षा का सबसे होनहार, शालीन और सर्वश्रेष्ठ दर्जे का विद्यार्थी था। सारे शिक्षक और हमसब सहपाठी उससे काफी प्रभावित थे। एक अच्छा विद्यालयीन माहौल था हम सब में। खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई ही जीवन था। इससे अधिक तो हम जानते ही न थे। हालाँकि शायद उसी दौरान हमारी कक्षा में एक नई लड़की का भी प्रेवश हुआ था। उसके परिचय के बारे में कहूँ तो गजब की कद काठी और अलौकिक सुंदरता की धनी थी वो लड़की। वक्त बीतता गया और वह भी हम सब के साथ खूब घूलमिल गई। पर न जाने कहाँ से उस छोटी सी उम्र में ही मेरे मित्र के मन में प्रेम का वास हो गया। उसे वह लड़की खूब भाने लगी। भीतर ही भीतर वह उससे अथाह प्रेम करने लगा। और एक रोज उसने  अपने प्रेम का इजहार उस लड़की के सामने कर ही दिया। परंतु शायद कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया न मिली और ये एक तरफा प्रेम ही चलता रहा।सच कहूँ तो उसका एक तरफा प्रेम कभी दो तरफा हो ही न पाया। बस मित्रता की आड़ में केवल उपयोगिता ही निभाई गई।
                         पर वह इस एक तरफा प्रेम में ही खुश था क्योंकि इसी बहाने वह उसकी मित्र तो थी। इसी निश्छल और मासूम प्रेम के वसीभूत होकर वह उस लड़की के लिए कुछ भी कर बैठता था। कभी कक्षा के उपद्रवी बच्चों से उसकी खातिर लड़ जाता तो कभी उसकी उत्तर पुस्तिकाएँ खुद ही जाँच लेता था। कभी परीक्षा केंद्र में उसकी परीक्षाएँ भी खुद ही लिख देता ताकि वह उत्तीर्ण हो सके। इन सबके लिए हम सारे दोस्त उसका खूब उपहास करते उसकी हँसी उड़ाते। कभी-कभी उसे सलाह भी देतें की यह सब मत कर वह लड़की केवल तेरा इस्तेमाल कर रही है। पर हम सब तो ठहरे मूर्ख हमारे भीतर तो कभी प्रेम का वास ही न हुआ तो हम ये कैसे जानते कि प्रेम में व्यक्ति खुद के बारे में नहीं सोच सकता। मेरा वह मित्र हमारे सारे अपमानों को सह जाता और प्रेम पथ पर अड़िग रहता। धीरे-धीरे हमारी दसवीं की परीक्षाएँ नजदीक आ गयीं। मेरा होनहार मित्र अपनी पढ़ाई को दरकिनार कर दिन-दिन भर सिर्फ उस लड़की को पढ़ाता रहता ताकि वो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सके। अंततः परीक्षाएँ हुई और परिणाम भी आ गए। वह लड़की तो  अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गई। परंतु मेरा मित्र अपने और हमारे विद्यालय के उम्मीदों पर खरा न उतर सका। उसके अंक कम हो गए और वह पहले जिस तरह कक्षा में प्रथम आता था इस बार प्रथम न आ सका। अध्यापक और हम सब मित्र तो उससे नाराज थे। परंतु वह अपने से खूब खुश था क्योंकि वह जानता था कि उसकी मेहनत सफल हुई है। उसकी प्रेमिका अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुई है।
                    विद्यालयीन दौर खत्म हुआ हम सब ने महाविद्यालयों में प्रवेश किया। मेरे और उस लड़की के विषय एक ही होने के कारण हमारी कक्षाएँ भी फिर एक बार एक ही थीं। परंतु मेरे मित्र की शाखा अलग होने के कारण वह हमसे अलग था। मतलब मेरे मित्र के लिए इस समय केवल मैं ही उसके और उसके तथाकथित प्रेमिका के बीच जरिया था। उसने पुनः चाहा कि वह किसी तरह उससे प्रेम पा सके। हालाँकि  अभी तक उस लड़की ने न ही प्रेम प्रस्ताव की स्वीकृति ही कि थी और न ही नकारा था। केवल मित्रता के नाम पर स्वार्थसिद्धि करवाती रही। इन सभी ऊहापोह में मेरे मित्र की शैक्षणिक योग्यता खराब होती गई। वह निरंतर हर कक्षाओं में अनुत्तीर्ण होता रहा। किसी कारणवश एक रोज उन दोनों में किसी बात को लेकर अनबन हो गई जो बढ़ती ही जा रही थी। अतः सुलह और समझौते के तौर पर मुझे भी इस बीच में जाना पड़ा। उसी दौरान उस लड़की ने बड़ी ही अभद्रता और अपमानजनक शब्दों में कहा कि उसे मेरे उस मित्र से किसी भी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं रखना। न मित्रता न ही कुछ और। और यह सब सुन हम दोनों मैं और मेरा मित्र हक्के-बक्के रह गए। हालाँकि उसके बाद मेरे मित्र की शैक्षणिक योग्यता और अधिक खराब होती गई। उसने पढ़ाई ही छोड़ देने का निश्चय ले लिया। परंतु एक बात थी उसने कभी गलत रास्ता नहीं चुना, खुदको अवसाद का शिकार नहीं होने दिया। कुछ समय बाद उसने स्वास्थ्य और व्यायाम के क्षेत्र की ओर रुख किया। अपने अंदर कौशल विकसित किया। साल दर साल खूब मेहनत की और आज वह एक अच्छे प्रशिक्षित स्वास्थ्य सलाहकार के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहा है। और हम सब मित्रों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण के तौर पर है।
              यह कहानी बताने का मेरा सिर्फ यह उद्देश्य था कि कभी-कभी हम हमारे आसपास की जिन चीजों और घटनाओँ को मामूली समझते हैं। उनका हमारे जीवन पर बेहद महत्वपूर्ण असर होता है। ये सारी घटनाएँ हमें बहुत कुछ अमूल्य बातें सीखा जाती हैं। जैसे कि मैंने अपने इस मित्र से बहुत कुछ सीखा।

१) जब आप विद्यार्थी हो तो आप केवल विद्यार्थी हो। अपना सर्वश्रेष्ठ शिक्षा को ही दो।
२) जब आप प्रेमी हो तो आप केवल प्रेमी हो। अपना सारा प्रेम निःस्वार्थ भाव से लूटा दो।
३) अंतिम एवं सबसे मुख्य जब भी जीवन में किसी भी क्षेत्र में असफलता हाथ लगे तो उससे अपने आप को बरबाद न कर बैठें बल्कि एक सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह के साथ जीवन को एक नई दिशा दें। एक नई शुरुआत करें।

                  और हाँ, इस पूरे चार-पाँच साल की प्रेमकहानी में मुझे व्यक्तिगत तौर पर जो बात सबसे ज्यादा भाती है, वो यह है कि मेरा वह मित्र इतना ज्यादा नैतिकतावादी था कि कभी उसने उस लड़की को न ही बुरी नजर से देखा और न ही कभी छुआ। जबकि उसके पास कई बार ऐसे मौके आए थे कि वह उसके साथ सारी इच्छाओं की पूर्ति कर सके। और हाँ कई बार तो कई मित्रों ने उसे सलाह तक दे दिया था कि तू भी उसका इस्तेमाल कर ले। पर वो तो ठहरा प्रेमी। उसने अपनी प्रेमिका का सम्मान और अपने प्रेम की गरिमा बनाए रखी।
                     कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या उस मित्र की जगह मैं होता तो क्या मैं भी ऐसा कर पाता। शायद नहीं...और यही चीज हमेशा कचोटती है कि उस छोटी सी उम्र में ही जीवन का एक अटल सत्य और अनमोल गुण मेरे मित्र ने मुझसे पहले ही सिख लिया था। हालाँकि हम सारे दोस्त अभी संघर्षों के दौर में ही हैं। पर वह लड़की हाल के ही कुछ समय में एक सुव्यवस्थित युवक से विवाह कर सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही है।




(लेख काफी बड़ा हो जाने के कारण बहुत कुछ बातें,यादें और किस्से अलिखित ही रह गए हैं, परंतु मैं जानता हूँ कि आप सब एक प्रेमी की भावनाओं का बखूबी समझेंगे। आशा करता हूँ कि कहानी अच्छी लगी होगी और हम सब में एक सकारात्मक ऊर्जा प्रेरित करेगी। गोपनीयता और निजता के कारण किसी का व्यक्तिगत परिचय नहीं दिया गया है।)

            

Thursday 2 December 2021

परिवार से अलग एक पुरुष

                    परिवार से अलग एक पुरुष

                           अकेले रहना कष्टदायी तो होता है, खास कर उन पुरुषों के लिए जो किसी कारणवश अपने परिवार से अलग हैं। पर यही अकेलापन इन पुरुषों को आगामी जीवन के लिए तैयार करता है। जो इन्हें एक आदर्श पुरुष बनाता है। मेरे ख्याल में अकेले रहने में कोई हीन भावना नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह अकेलेपन का दौर ही मनुष्य को उसके जीवन के सारे बहुमूल्य सबक सिखाता है और परिपक्व, आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी एवं कर्मठ बनाता है। इस प्रकार के पुरूष कच्ची उम्र से ही जीवन के गूढ़ रहस्य को समझने लगते हैं और वास्तविकता में जीते हैं न कि ढोंग और चमक दमक में।
                       खुद ही खुद से प्रेम करना, सारी दुख तकलीफों में खुद को खुद से सम्भाल लेना, कभी जी भर रो लेना तो कभी बेवजह मुस्कुरा देना। एक आदर्श जीवन के ऐसे कई गुण इन पुरुषों में स्वाभाविक तौर से विकसित हो जाते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और न जाने कई परेशानियों को झेलते हुए भी ये लोग जीवन को सुचारू ढंग से चलाते हैं और जीवन की जीवटता को मिटने नहीं देते। इस प्रकार का अकेलापन एक पुरुष हो उसके वास्तविक में पुरुष होने का बोध कराता है और उसे उसके दायित्वों का निर्वहन करने की क्षमता प्रदान करता है।
           "और हाँ एक अंतिम परन्तु मुख्य बात की ऐसे पुरुषों को पेट की भूख  के लिए कभी किसी स्त्री पर निर्भर नहीं होना पड़ता।"


(अपने परिवार से अलग, माँ-बहन, प्रेमिका-पत्नी से दूर रह रहे सभी मित्र भाइयों को समर्पित एक छोटा सा लेख। आशा करता हूँ कि भावनाएं आपके दिल तक जरूर पहुचेंगी।)

पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...