Friday 10 December 2021

शिक्षा: मजदूर की आँखों का सपना

                 शिक्षा: मजदूर की आँखों का सपना

     एक बालक मात्र १२-१३ की उम्र में बड़े शहरों का रुख करने लगा था। अभी बचपना छूटा ही न था, खेलकूद से मन भरा ही न था कि जिम्मेदारियों का बोझा सिर आ चुका था। साँवला रंग और ढीली-ढाली कद काठी का वह बालक लेकिन ईमानदारी, मेहनती और सच्चाई के गुणों को जानने वाला। निकल पड़ा था अपने गाँव-घर और माँ-बाप से दूर शहरों की ओर मजदूरी दिहाड़ी की तलाश में। जहाँ दो जून का खाना मिलता दो पैसे मिलते वहीं रह लेता मजदूरी कर लेता। कोई ढंग का काम तो मिलने से रहा, शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता जो न था। इच्छा तो थी शिक्षा पाने की परन्तु आर्थिक हालात ऐसे न थे कि वो शिक्षा पा सके। इसीलिए काम करता और जो पाता उसी में खुश रहता।
       वह कुछ वयस्क हुआ ही था कि उसका ब्याह हो गया। अब सिर पर और एक जिम्मेदारी आ गयी थी। जिम्मेदारी क्या मानो बोझ। खुद के पेट पाले नहीं पल रहे थे कि अब घर गृहस्थी भी बसाना पड़ा। देखते ही देखते अब पुत्र रूप में एक और जिम्मेदारी आ गयी थी। परंतु अब तक वह इतना साहसी तो हो चुका था कि सारी जिम्मेदारियों को निर्भीकता से उठा ले। कुछ समय बिता आर्थिक तंगी अब भी वैसी ही बनी थी परंतु अब पारिवारिक कलह भी होने लगा। मजबूरन अपना परिवार लेकर उसे माँ-पिता से अलग हमेशा के लिए किसी अनजान शहर के एक छोटी-सी झुग्गी-झोपड़ी में बसना पड़ा। जीवन की एक बिल्कुल शुरू से नई शुरुआत हुई। जस-तस गुजर बसर होने लगा। कई मौसम बदले,बरस बदलते गए अब वह तीन संतानों का पिता हो चुका था। परंतु आर्थिक तंगी बरकरार ही थी। शिक्षित न होने का मलाल जीवन भर उसे ज्यों-त्यों सताता रहता था। इसी कारण उसने अब प्रण ले लिया था कि उसे चाहे जीवन भर दुख झेलना पड़े। चाहे जो हो जाए वह अपनी संतानों को जरूर शिक्षित  करेगा। वह उन्हें पढ़ा-लिखा कर एक प्रतिष्ठित व सम्मानजनक व्यक्तित्व वाला जीवन प्रदान करेगा। यह दृढ़ संकल्प सिर्फ उसका ही नहीं बल्कि उसकी पत्नी का भी था। क्योंकि वो भी धेला बराबर भी शिक्षित न थी परंतु गृहस्थी में निपुड थी और शिक्षा का महत्त्व भलीभाँति जानती थी।
               दोनों जी तोड़ अथाह मेहनत करते और उसी से अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण करते। जिंदगी की मूलभूत जरूरतों में कटौती कर अपना पेट काट-काट कर दोनों अपनी संतानों को खूब पढ़ाने का सपना संजोते। उन्होंने कुछ रो-धोकर तो कुछ सिफारिशों के सहारे अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती तो करा दिया। पर आए दिन पढ़ाई के खर्चे और  स्कूल के शुल्क अदा कर पाना उनके बस की बात न हो पा रही थी। नतीजतन दाखला रद्द होने की नौकत तक आ गयी। न चाहते हुए भी कर्जा लदकर  बच्चों की पढ़ाई जारी रखी गई। हालाँकि बच्चे भी पढ़ाई-लिखाई में होनहार ही थे। अभावों के चलते बस जीवन के दूसरे आयामों में थोड़ा पीछे थे। मगर शैक्षणिक प्रदर्शन बेहतर था। आए दिन कक्षा में उनका हुनर बोलता था। शिक्षक काफी प्रभावित थे उनकी प्रतिभा से। मगर नियति पग-पग पर इनकी परीक्षा लेती और इन्हें जीवन पथ पर मजबूती से डटे रहने का सबक सिखाती।
                      वक्त के साथ-साथ दोनों दंपति उम्र दराज होते गए। मजदूरी अब किए नहीं जा रही। घरवाली अलग बीमार रहती। घर चलाना मुश्किल होता जा रहा था। परंतु व्यक्ति ने इस पल भी हार न मानी और अपना सपना जीवित रखा। किसी भी परिस्थिति में अपनी संतानों की शिक्षा को बाधित न होने दिया। चूँकि अब सन्तानें भी इतनी बड़ी हो चुकी थीं कि अपनी आर्थिक स्तिथि को समझ सकें और अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठा सकें। परिणामस्वरूप उन बच्चों ने भी कुछ काम करना शुरू कर दिया और साथ ही साथ अपने पिता के सपने को भी जीवित रखा। पैसे कमाने में हाथ बंटाने के साथ साथ वे अपनी पढ़ाई को भी बखूबी जारी रखते और इतना ही नहीं सभी शैक्षणिक मापदण्डों में अव्वल ही रहते। जिससे बूढ़े दम्पत्ति को सांत्वना मिलती की ईश्वर एक न एक दिन उनकी मेहनत का फल जरूर देंगे और उनका सपना भी साकार होगा।
              यह कहानी किसी सफल व्यक्तित्व या किसी  व्यक्ति की असाधरण सफलता की नहीं है बल्कि यह कहानी हमारे देश के सबसे पिछड़े तबके के ऐसे हजारों-लाखों गरीब-मजदूर लोगों के संघर्ष की कहानी है। जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल अपनी संतानों को शिक्षित कर देना ही होता है। वे इसमें ही अपने जीवन की सार्थकता को मानते हैं। और बस इसी एक संकल्प के लिए अपनी परंपरागत लीक से हटकर कुछ सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए जीवन भर जीवनभर संघर्ष करते हैं। हालाँकि उनके सपनों का सच होना न होना यह तो ईश्वर के हाथों ही है। परंतु ऐसे महान विचारधारा वाले हर उस व्यक्ति को मेरा सहृदय नमन है। ईश्वर से प्रार्थना है कि किसी ऐसे ही सपने को पूरा करने का भागीदारी मैं बन सकूँ।

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