Sunday 24 July 2022

खुशियों के मौसम हुआ करते थे,
न जाने कहाँ से ये बदली छा गई।

अभी घर से कुछ दूर चला ही था,
राह में फिर एक नई मुसिबत आ गई।

जिंदगी आसां होती जो हम नादां होते,
हमको ये हमारी समझदारी खा गई।

सफलता हमारे भी कदमों में होती ,
जाना तुमको हमारी नाकामी भा गई।

मोहोब्बत हमारे भी दिलों में होता 'संदीप'
मगर हमसे तो हमारी आवारगी ना गई।

:- संदीप प्रजापति


Wednesday 13 July 2022

जब खुद से प्रेम नहीं हुआ तो दूसरों से कैसे होगा?

     जब खुद से प्रेम नहीं हुआ तो दूसरों से कैसे होगा?


       प्यार में गिरने या प्रेम में पड़ने को अंग्रेजी में कहते हैं- फॉल इन लव वास्तव में सच्चा प्रेम हमें गिराता नहीं, वह तो हमारे जीवन को ऊंचा उठाता है। जीवन प्रेम को जीने और प्रेम से जीने के लिए है। हमारे अनुभवों को सुखद और बेहतरीन बनाने के लिए है। देखा जाए तो दैहिक प्रेम स्वार्थी, सीमित और अल्पकालीन होते हैं। जबकि आत्मिक स्नेह निःस्वार्थ और दीर्घकालीन होते हैं। शारीरिक स्नेह या दैहिक संबंध हमें बंधन में डालता है। जबकि रूहानी स्नेह या संबंध हमें सारे सांसारिक कर्म बंधनों से मुक्त कर देता है। रूहानी स्मृति, दृष्टि और वृत्ति हमारे संबंधों को मधुर, सहनशील तथा संपूर्ण बनाती है।

       असल में हम कोई भी संबंध प्रेम देने और पाने के लिए बनाते हैं। प्रेम भावनात्मक पूर्णता का स्रोत है। सच्चा प्रेम हमारे जीवन में प्रगति का मार्गदर्शक बन जाता है। कई बार कोशिश के बावजूद हम प्रेम से वंचित रह जाते हैं। पर जब हम निर्मल प्रेम के चिरंतन स्रोत परमात्मा से अपनी अंतरात्मा जोड़ लेते हैं, तब हमारे जीवन में प्रेम की कोई कमी नहीं रहती। सबसे श्रेष्ठ आत्मिक और परमात्म प्रेम है। इससे प्रेम के मार्ग में आने वाली बाधाएं हट जाती हैं। संकीर्ण विश्वासों से ऊपर उठ कर हम सच्चे प्रेम के वाहक बन जाते हैं। साथ ही, इस प्रेम को महसूस करना और कराना हमारे लिए सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

        हम अपने संबंधों के दायरे में निस्संदेह सभी से प्रेम करते हैं। सवाल है कि क्या हम उन्हें बिना शर्त प्रेम करते हैं? शायद नहीं क्योंकि हम अपनी अंतरात्मा के मूल गुण शांति, प्रेम और प्रसन्नता को अनुभव या व्यवहार में नहीं ला पाते हैं। फलस्वरूप जब हमारा मन व्याकुल होता है, तब हम स्थिर मन से उत्तर भी नहीं दे पाते हैं प्यार के बारे में सोचना तो दूर की बात रही। अक्सर हम अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों या हालात को दोषी ठहराते हैं। कभी हम दूसरों के लिए जजमेंटल होते हैं। कभी हम किसी को अपनी तरह काम न करते देख नाराज होते हैं। कभी दूसरे हमें स्वीकार नहीं करते। ये सब बातें हमारे प्रेम के प्रवाह में बाधा पैदा करती हैं। तब हम अंतरात्मा के मूल गुण प्रेम का अनुभव करना बंद कर देते हैं, और सामने वाले से उस प्यार को पाने की अपेक्षा करते हैं। हम भूल जाते हैं कि हम अपनी अंतरात्मा से जुड़ कर ही प्रेम के अनंत स्रोत परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।

       दूसरी बात, बहुत से लोग केवल अपनी शर्तों पर ही प्रेम करते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि वे इसे बाहर खोजते हैं। असल में प्रेम का अनुभव आपसे ही आरंभ होता है। अगर आप खुद से प्रेम नहीं करते हैं, तो आप के लिए दूसरों से प्यार करना संभव ही नहीं है। जब आप खुद को प्रेम करने लगते हैं, तो उसे दूसरों को देना सहज हो जाता है। तब आप आसानी से मोह, अपेक्षा, स्वामित्व भाव या दूसरों को नियंत्रित करने जैसी प्रेम विरोधी भावनाओं का परित्याग कर पाते हैं। जब मन में अपने और दूसरों के प्रति स्नेह का भाव साफ हो, तो संबंधों में पैदा होने वाली ऊर्जा शुद्ध होती है। तब दया, करुणा और सहयोग जैसी श्रेष्ठ भावनाएं प्रेम का प्रवेश द्वार बन जाती हैं हम दूसरों के प्रेम को पाने की अपेक्षा से हट कर जीवन को बदलने वाली परमात्म प्राप्ति की ओर बढ़ पाते हैं।
:- ब्रह्मा कुमारी शिवानी

(नवभारत टाइम्स के लेख से)

Sunday 10 July 2022

प्रेम रिक्ति

                            प्रेम रिक्ति


पूज्य थी जो सूलोचनी
जाने वो किस ओर चली।
मेरे इस देवालय को
सूना देवहीन छोड़ चली।।

जाने वो किस ठौर चली
शीशा एक दिल तोड़ चली।
रहे खुश आबाद रहे 
मुझ निर्बल का तो राम ही बली।।

उसकी देह से खूबसूरत
उसका मन जाना था।
हाँ हाँ मैंने जाना था 
उसको अपना तन मन जाना था।।

गोल गोल थी गोरी बाहें
रूप और जौबन की वो मूरत।
भूलूँ जग सारा भूलूँ भगवन
जब लखूँ निष्ठुर की मोहनी वो सूरत।।

पूजूँ मैं अब किसको पूजूँ
किसको दूँ मैं प्रेम धूप दीप।
नाम एक उसी का जानूँ मैं
दूजा नाम किसका भजूँ 'संदीप'।।

दोष धरूँ न मैं उसपर
रोष करूँ न मैं उसपर
मेरे तो तुम हो प्रेमनिधि राम
तुमसे अधिक प्रेम करूँ मैं किसपर।

देव दो संबल इतना
उसके संग की यादें बिसरुँ।
रोऊँ सिसकूँ हिम्मत बाँधूं
और फिर मैं हीरे सा निखरुँ।।

जाऊँ जिधर सो कीर्ति हो
इतनी सहज सरल प्रकृति हो।
दे दो निज पग प्रेम प्रभु इतना
मेरे हिए प्रेम रिक्ति की परिपूर्ति हो।।
       
                                             :- संदीप प्रजापति

( प्रस्तुत कविता लेखक के अपने निजी भाव और कल्पना की प्रस्तुति है। पाठक को कोई त्रुटि नजर आए तो अवश्य सुझाव दें। आशा है कि आप मेरी इस कविता को अपना आशीर्वाद और प्रेम देंगें।)

Wednesday 6 July 2022

नर से नारी तक

                          नर से नारी तक...


           घरेलू औरत क्या होती है जानने के लिए आपको जीना होगा औरतों का सा जीवन। आपको अपनी निजी इच्छाओं को मारकर सबके लिए एक बिना मेहनताना वाला मजदूर होना होगा। आपको होना होगा सबकी खुशी का जरिया और सबकी जरूरतों का पिटारा। और हाँ इतना सब कुछ करने के बाद भी निश्चित नहीं कि आप अपने औरत होने पर खरे उतर पाए। 
        पुरुषों के लिए जरूरी है कि वो अपने पुरुषार्थ के बल से अपने भीतर नारीत्व को भी जानने की कोशिश करें। जिस पुरुष ने अपने भीतर बसे नारीत्व को नहीं जाना वो कभी संसार एवं प्रकृति को नहीं जान सकता। वो कभी एक श्रेष्ठ पुरुष कहलाने के योग्य नहीं हो सकता है। जब तक पुरुष अपने में नारीत्व को नहीं जानेगा तब तक न वो अपने सहज भावों को जान सकेगा और न ही अपने दुखों पर स्वछंद रो सकेगा। 
                          :- संदीप प्रजापति

(यह अनुच्छेद लेखक के निजी विचार है। किसी वर्ग विशेष से इसका कोई सरोकार नहीं है।)

Sunday 3 July 2022

इजहार...

                               इजहार...

क्या एक तुम ही हो 
बला की खूबसूरत,
या कोई और सूरत
मैं इन आँखों में नहीं भरता।

बेबाक मैं कह न सका
प्रेम भाव तुमने जाना नहीं,
ठुकरा दो या स्वीकार करलो 
इन बेरुखियों से जीवन नहीं चलता।

यूँ हँसने मुस्कुराने बातें भर
कर लेने से जी नहीं भरता,
दिल तुम्ही को चाहता है
किसी और पर क्यों नहीं मरता।

चाहो न चाहो आजादी है
यूँ तिरछी चाल चलो नहीं,
प्रेम करो सो जीवन दो
यूँ प्रेम में किसी को छलो नहीं।

प्रेम तुम्हे मानता हूँ
सो अब इंतजार कर रहा हूँ,
न चाँदनी रात है न कभी गुलाब दिया
बस कविताओं से इजहार कर रहा हूँ।
                                            :- संदीप प्रजापति

याद आता है...


                      याद आता है...

तन्हाइयों को कहाँ दफनाया जाए,
उसके न होने पर उसका होना याद आता है।

गम न होते तो चेहरे हमारे भी मुस्कुराते,
इन रुसवाइयों में तो बस रोना याद आता है।

रात थी खाब थे नींद थी बस सो न सके,
सहर हुआ तो वो तकिया बिछौना याद आता है।

बस आज ही की तो बात है कल तलक भुला देंगें,
सारी जिंदगी कहाँ किसी को खोना याद आता है।

कलम का रोना कागज भिगोना याद आता है,
'संदीप' उसके जिस्म का हर कोना याद आता है।

:- संदीप प्रजापति

पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...