प्रेम रिक्ति
पूज्य थी जो सूलोचनी
जाने वो किस ओर चली।
मेरे इस देवालय को
सूना देवहीन छोड़ चली।।
जाने वो किस ठौर चली
शीशा एक दिल तोड़ चली।
रहे खुश आबाद रहे
मुझ निर्बल का तो राम ही बली।।
उसकी देह से खूबसूरत
उसका मन जाना था।
हाँ हाँ मैंने जाना था
उसको अपना तन मन जाना था।।
गोल गोल थी गोरी बाहें
रूप और जौबन की वो मूरत।
भूलूँ जग सारा भूलूँ भगवन
जब लखूँ निष्ठुर की मोहनी वो सूरत।।
पूजूँ मैं अब किसको पूजूँ
किसको दूँ मैं प्रेम धूप दीप।
नाम एक उसी का जानूँ मैं
दूजा नाम किसका भजूँ 'संदीप'।।
दोष धरूँ न मैं उसपर
रोष करूँ न मैं उसपर
मेरे तो तुम हो प्रेमनिधि राम
तुमसे अधिक प्रेम करूँ मैं किसपर।
देव दो संबल इतना
उसके संग की यादें बिसरुँ।
रोऊँ सिसकूँ हिम्मत बाँधूं
और फिर मैं हीरे सा निखरुँ।।
जाऊँ जिधर सो कीर्ति हो
इतनी सहज सरल प्रकृति हो।
दे दो निज पग प्रेम प्रभु इतना
मेरे हिए प्रेम रिक्ति की परिपूर्ति हो।।
:- संदीप प्रजापति
( प्रस्तुत कविता लेखक के अपने निजी भाव और कल्पना की प्रस्तुति है। पाठक को कोई त्रुटि नजर आए तो अवश्य सुझाव दें। आशा है कि आप मेरी इस कविता को अपना आशीर्वाद और प्रेम देंगें।)
No comments:
Post a Comment