Monday 23 November 2020

प्रेम

"प्रेम के बदले में प्रेम पाने की ईच्छा करना ही मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण है। प्रेम तो  केवल देने का नाम है, प्रेम में अगर वापस पाने की ईच्छा की जाए तो वह प्रेम न रहकर सौदा बन जाए। लेकिन दुख तो तब होता है जब आपने अपना सारा प्रेम निश्छल भावना से किसी पर  लुटा दिया हो और उसे इस बात की कद्र भी न हो।"

Wednesday 18 November 2020

पंक्तियाँ प्रेम की

न जाने कब तू मुझमें मुझसे ज्यादा सी हो गई

जाने कैसे लोग कई सारी मोहोब्बतें करते हैं,
हमसे तो एक ही न भुलाई जा रही।

याद तेरी यूँ ही रुलाई जा रही।

नही भुला जा रहा वो तेरा ऐंठना,
नही भुला जा रहा वो मेरा चुमना।

नहीं भूली जा रही वो तेरी मीठी सी बातें,
नहीं भूली जा रही वो मेरी अधजगी सी रातें।

नहीं भुला जा रहा तेरे बालों को धुलाना,
नहीं भुला जा रहा मेरे गालों को सहलाना।

नहीं भूली  जा रही तेरी बचकानियाँ,
नहीं भूली जा रही मेरी नादानियाँ।

नहीं भुला जा रहा तेरा वो नाम,
नहीं भुला जा रहा मेरा वो शाम।

नहीं भूली जा रही तेरी संगत,
नहीं भूली जा रही मेरी रंगत।

हो अगर मिलन दुबारा तो सीता राम सा हो,
वरना बिछड़न हमारा तो राधा श्याम सा हो।


Monday 2 November 2020

RAPE MUKT SANSAAR

#बलात्कार😰😰

#Rape......😢😢

आज एक बच्चा भी जानता है कि रेप क्या होता है? कैसे होता है? हाँ लेकिन किन कारणों से होता है, कारण नहीं जानता। सच कहें तो ये कोई नही जानता न जानने का प्रयत्न करता।

खैर लोग कहते हैं कि रेप क्यों होता है??? कौन जिम्मेदार है इसका! लड़कियों का पाश्चात्य पहनावा, लडकों की घटिया मानसिकता या सरकार की सुस्त नीतियाँ??
लेकिन क्या मात्र यही सब इन बढ़ती रेप औऱ acid attack जैसी घटनाओं के जिम्मेदार है।
कहते हैं रेप का कारण लड़कों की मानसिकता है लेकिन वो आयी कहाँ से???
बीते समय में शुरुआती 4-5 साल का बच्चे क्या देखते सुनते बड़े होते थे, बुजुर्गों की बातें, टीवी पर माल गुडी डेज, शक्तिमान, चित्रहार, रामायण, महाभारत। और आज उसी उम्र के बच्चे क्या देख सुन रहे है? टीवी पर आइटम न०(कुंडी मत खड़काओ राजा, मुन्नी बदनाम, प्यार दो प्यार लो आदि) अश्लीलता की हद्द पार करती हुई फिल्में(सभी वाकिफ हैं), double meaning vulger comedy, सीरियल आदि...
और बची कुची कसर ये विज्ञापन पूरी कर देते हैं, पूरा दिन प्रचार के लिए बेहद घटिया विडियो क्लिप टैग लाइन्स के साथ Set wet gel(नही लगाया तो लड़की नही पटेगी), close-up(पास आने का मौका), innerwear(खुशबू वाली), body sprey(कोई दूर न रह पाए), neha swaha-sneha swaha(ठंडी में गर्मी का एहसास) आदि हद से ज्यादा....
इनसे भी और अलग पाखंड ज्योतिषी विद्या- बाबा बंगाली, तंत्र, मनचाहा प्यार पाए, स्त्री वशीकरण आदि के विज्ञापन।।

*Over all जब हर विज्ञापन हर फ़िल्म, सीरियल, गाने में केंद्र बिंदु और भोगविलास की वस्तु लड़की होती है। तो ऐसे में इन कृत्यों को बढ़ावा मिलना निश्चित है। ऐसी घटनाओं के पीछे निश्चित रूप से ये बाज़ारवाद जिम्मेदार है।

कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में कुछ भी परोसा जाता है। और उसे सभी सहर्ष स्वीकारते हैं।
लेकिन गलती इनकी भी नहीं है क्योंकि आप ख़रीददार हैं। इनके दर्शक हैं, आपका मनोरंजन करना इनका काम है जिसमे बर्बाद होने के लिए पैसे भी आप अपनी जेब से देते हो।
लेकिन ये सब देख के हमारा खून नही खौलता, तब हमें गुस्सा नहीं आता?? इसका विरोध हम कभी नहीं करते क़भी कैंडलमार्च नहीं करते।

हमें लगता है रेप, acid attack, harrasmant  रोकना सरकार, पुलिस  प्रशासन और न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी है।। क्यों??? रेपिस्ट बनाये ये टीवी, फ़ोन,  बॉलीवुड, सोशल मीडिया,आपका आस पास का माहौल और जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की? क्या समाज, मीडिया, और हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं?? इन सबकी जड़ टीवी चैनल्स, बॉलीवुड, मीडिया को कुछ नही कहेंगे आप। क्योंकि वो मनोरंजन करते हैं आपका??

हम सरकार पर गुस्सा ऐसे निकालते हैं जैसे उसने ही रेप एजेंट छोड़ रखे हैं समाज में। और जिस तरह ये वारदातें बढ़ रही हैं, एक लड़की के साथ रेप की वारदात पर हम क्रोधित हो जाते हैं, जोर शोर से सोशल मीडिया पर हल्ला मचाते हैं, dp बदल लेते हैं, कैंडिल मार्च निकालते हैं, न्याय की मांग करते हैं, और सजा के तौर पर रेपिस्ट की फांसी औऱ अनकॉउंटर पर खुश हो जाते हैं पटाख़े फोड़ते हैं कुल मिलाकर दिल को ये तसल्ली देते हैं कि न्याय हुआ, पर क्या ये काफी और सही है?????

इन सब में कुछ पाना तो दूर हम खो क्या रहे हैं क्या कभी ग़ौर किया???? खो रहे हैं हम अपने देश का भविष्य, एक रेपपीडिता लड़की, और एक रेपिस्ट लड़का, जो कल को इस देश का भविष्य बनते। रेपिस्ट के लिए अखंड गुस्सा वहीं पीड़िता के लिए सहानुभूति,, पर क्या वो लड़का ये सब सीख के धरती पर आया था ?? क्या उसके द्वारा किये कुकृत्य की जड़ वो स्वयं था?? वो थी आज के भागदौड भरे जीवन की ओछी मनोस्थिति। उसे ऐसा बनाया इस बाज़ारवाद ने, परिवार ने...

बच्चों के सामने उभरते ये निंदनीय मुद्दे, खो रहे हैं हम अपने देश की शांति व्यवस्था, दिन रात यहीं सब टीवी, मीडिया, सोशल साइट, आस पास यही बाते। भारत कितना ही विकास कर ले लेकिन इन् घटनाओँ के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर में उसकी साख बनना नामुमकिन है।

आज बच्चों का बचपन दादी दादी के साथ कहानी सुनते हुए नहीं ये सब बातें सुनते हुए बीत रहा है, आज वो सामूहिक परिवार मे नहीं रहते बल्कि अकेलेपन को दूर करने के लिए फोन पर विडियो, और फ़िज़ूल लोगों का सहारा लेते हैं।(helo, azar, tinder, finder)
आज बच्चे अपनेपन का मतलब नहीं अकेलेपन का मतलब जानते हैं।। और उसे ही दूर करने के लिए इन सबमें फसते जाते हैं।

आप कितने ही कठोर सख्त कानून बना लीजिये जब ये सब आज हमारे माहौल और समाज का हिस्सा है तो ये घटनाएं न रुकी हैं, न रुकेंगी।
*बल्कि दुःख हो रहा है कहते हुए कि ये तो शुरुआत है अभी।*

अगर अपनी बेटियों को बचाना है तो सरकार कानून से निकलकर ये भड़काऊ सोशल मीडिया साइट्स की गंदगी साफ करने की जरूरत है।
*मैं किसी के पहनावे को गलत नहीं कहता लेकिन अच्छा पहनना और फूहड़, बेहुदा पहनना दो अलग बाते हैं।*  जगह के अनुसार पहनें और खुद को ढालें। औऱ इसी तरह लड़कों को भी समझना पड़ेगा कि हर लड़की मौका नही जिम्मेदारी है। उसे निभाने की कोशिश तो करें। *(स्वयं की मोमबत्ती जलाने के लिए दूसरों के घर न जलाएं।)*

रेप रोकना सरकार का काम नहीं आपके परिवार में मिले संस्कारों का है। चाहे लड़का हो या लड़की सीमाएं और नियम दोनों के लिए बराबर हों।

सुधरने की जरूरत न सिर्फ सरकार को है ना लड़कों को है ना लड़कियों को है, समाज खुद से भी अपनी समस्या का समाधान कर सकती है।

अब वक्त की मांग है कि सभी अपने आप को अपने स्तर पर सुधारें। क्योंकि ये घटनायें किसी एक आयु वर्ग तक सीमित नहीं हैं अपितु हर आयु वर्ग की नारी इससे जूझ रही है।

जितना गुस्सा और विरोध एक बलात्कारी व्यक्ति के लिए होता है उसका आधा भी हम इस सोशल मीडिया और ओछे बॉलीवुड की फैलाई दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ दिखाये तो समस्या का कुछ हद्द तक निदान हो सकता है।
*कदम उठाने से ही रास्ते तय होते हैं, सोचने से मंजिले पास नही आती।*

वादा करिये खुद से कि किसी न किसी रूप में अपनी *मानसिकता, अपने समाज को ऊंचा व साफ रखेंगे।

जीवन में सुधार निर्णय करने से नहीं निश्चय करने से होते हैं। क़्योंकि युद्ध बंदूकों से नही उन कन्धों से जीते जाते हैं जो उन्हें चलाते हैं।।*

*मौत भले ही आँकड़ों का खेल होती हो पर जिंदा लोग आँकड़े नही होते वो धड़कते हुए सपने होते हैं, उम्मीदें होती हैं क्योंकि वो जिंदा होते हैं।*

(यहाँ किसी की भावनाओं को आहत करने का उद्देश्य नहीं है, न ही किसी के फेवर में कही बात है, तो कृपया शब्दों से ज्यादा भावना को समझने का प्रयत्न करें।)
(COPIED)

Sunday 30 August 2020

काला रंग

माना बदसूरत काले 

पर हम भी रुतबे वाले 

जाना है तुमने ये कहां 

दुनिया के जो रखवाले 
काले हैं गीता वाले 

जिनके हाथों में दो जहाँ 

वेदों  के अक्षर काले 

पूजा के पत्थर काले 

काला है तारों का मकान 



लाखों में एक हो माना 

पर ये तो सोचो जाना 

मेरे ही रंग से हो हसीं 

जुल्फ़ें लहराती काली 

आँखें वो सुरमें वाली 

हाथों का धागा देख लो 

सोती हो तुम काले में 

छिपती हो तुम काले में 

फिर हमसे इतना दूर यूँ 

आँखें बंद करके देखो 

सपनों के पीछे देखो 

मेरे ही रंग के साथ हो 


चेहरे का नूर बढ़ाये 

छोटा जो तिल पड़ जाये 

परियां भी देखें आपको 

काली नजरों से बचाये 

काला टीका जो लगाए 

अब तो समझो ना बात को 


आओगे तो जानोगे 

रहते हो ऐसे दिल में 

जैसे हो मेरा सब तेरा। 

तुमसे लम्हा जीता हूँ 

तुमको  खुद में बनता हूँ 

अब कैसे दूँ मैं इम्तिहां। 


ग़र जाना है तो जाओ 

इतराना है इतराओ 

इतना कहना पर जो मिलें। 

बिजली बादल को छोड़े 

पानी  झरने को छोड़े 

दिन भी रातों को छोड़ दे।  

लक्ष्मी, नारायण छोड़ें 

गौरी,शंकर को छोड़े 

अब क्या बोलोगे बोल दो 


आज हैं हम कल ना होंगे 

फिर ऐसे पल ना होंगे 

जो तुम पर इतना हो फना।  

समझो ना समझो तुम पर 
अब हैं सब बातें तुम पर 

जितना कहना था कह दिया। 


:- कवि संदीप द्विवेदी जी

(एक बहुत ही सुंदर कविता , जो किसी के भी हृदय को स्पर्श कर जाए।)

Sunday 9 August 2020

जीवन :- झोपड़पट्टी में

                           झोपड़पट्टी
                     
           जैसा कि हम सभी ने देखा है,झोपड़पट्टीयाँ गन्दी और मैली-कुचैली ही होती हैं। इन गन्दी बस्तियों को देखकर हम सोचते हैं कि काश यह न होते तो हमारा शहर और अधिक सुंदर होता। शायद कुछ हद तक यह सच भी है। झोपड़पट्टियों में लोग छोटे-छोटे मकानों में रहते हैं, जिन्हें कुछ लोग माचिस की डिब्बियों के समान ही उपमा देते हैं। अधिकतर मकान तो टिन, पतरों और बाँसों के ही बने होते हैं और कुछ ही मकान पक्के होते हैं। इन बस्तियों की सँकरी गलियों को देखकर किसी का भी जी ऊब जाए परन्तु इन्हीं बस्तियों में कई लोगों का जीवन बसता है।
          वैसे तो ऐसे इलाकों में बिजली, पानी और सामान्य जरूरतों की कई समस्याएं होती ही हैं, परन्तु इन सब में सबसे महत्वपूर्ण होता है, शौचालय की समस्या। आज केवल मुम्बई जैसे शहर में ही अनेकों ऐसी बस्तियाँ मौजूद हैं जहाँ शौचालय नहीं है, और यदि है भी तो बहुत बुरी अवस्था में होती है। इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग गन्दगी की समस्या से भी अछूते नही रहें हैं और इसी गन्दगी के कारण कई रोगों का भी प्रसरण होता है।
            यदि बात की जाए इन बस्तीवासियों के रहन-सहन की तो यह बहुत ही बद्दतर होती है। ये लोग अशिक्षित होने के कारण कोई ढंग का काम नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण इन्हें मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालना पड़ता है। ऐसी बस्तियों में सामाजिक अव्यवस्था होने के कारण नौयुवक नशे, चोरी और अश्लीलता जैसे कुकृत्यों के जाल में फँस जाते हैं और अपना जीवन व्यर्थ कर बैठते हैं। वैसे कुछ ऐसे भी जुझारू लोग होते हैं ,जो अपनी इस गरीबी और बदहाली  से भरी जिंदगी से प्रेरणा लेकर अपनी आर्थिक स्तिथि को सुधारने के लिए जी - जान लगा कर अपने सपनों को पूरा करते हैं। ऐसे लोग अत्यधिक संवेदनशील और कर्मठ होते हैं।
                    इन झोपड़पट्टियों का एक अनोखा पहलू यह भी है कि यहाँ जीवन कठिन तो होता ही है परन्तु रोमांचक भी होता है। ऐसी बस्तियों के बच्चों का बचपन सबसे सुहावना होता है, वे बचपने का पूर्ण रूप से आनन्द ले पाते हैं, वे लोग छोटी-छोटी चीज़ों में ही खुशियाँ खोज लेते है। जैसा की सामान्यतः विकसित समाज में नहीं होता है,जहाँ लोग एक दूसरे तक को नहीं जानते हैं, अपने पड़ोसी तक को नहीं पर इन बस्तियों में ऐसा नहीं होता है, यहाँ तो लोग एक दूसरे को परस्पर जानते भी हैं और आपसी मेल-मिलाप भी रखते हैं तथा सारे तीज-त्यौहार एक साथ हँसी खुसी मनाते हैं।
             बड़े - बड़े शहरों में बसने वाली ये छोटी - छोटी झोपड़पट्टीयाँ उन शहरों के लिए समस्या नहीं बल्कि कई जिंदगियों के लिए समाधान हैं। जिनके छोटे-छोटे घरों में बड़े-बड़े सपने पलते हैं।

धन्यवाद!



Saturday 25 July 2020

मैं

दर्द कागज़ पर,
          मेरा बिकता रहा,

मैं बैचैन था,
          रातभर लिखता रहा..

छू रहे थे सब,
          बुलंदियाँ आसमान की,

मैं सितारों के बीच,
          चाँद की तरह छिपता रहा..

अकड होती तो,
          कब का टूट गया होता,

मैं था नाज़ुक डाली,
          जो सबके आगे झुकता रहा..

बदले यहाँ लोगों ने,
         रंग अपने-अपने ढंग से,

रंग मेरा भी निखरा पर,
         मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा..

जिनको जल्दी थी,
         वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,

मैं समन्दर से राज,
         गहराई के सीखता रहा..!!


साभार : इन्टरनेट

(चंद पंक्तियाँ जो दिल को गहराई से छू गयी ,जिनको आप लोगों से साझा करते हुए खुद को रोक न सका। 
लेखक जी को मेरी ओर से इन पंक्तियों के लिए धन्यवाद ,क्या खूब लिखा है आपने)

Wednesday 24 June 2020

आशावादी बनें; नर हो न निराश करो मन को

आशावादी बनें

         एक बार एक युवक को संघर्ष करते-करते एक वर्ष से कुछ ज्यादा ही समय हो गया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। वह निराश होकर जंगल में गया और वहाँ आत्महत्या करने ही जा रहा था कि अचानक एक सन्त प्रकट हो गए । सन्त ने कहा, "बच्चे क्या बात है, इस घनघोर जंगल में क्या कर रहे हो?"
उस युवक ने जवाब दिया, "मैं जीवन में संघर्ष करते-करते थक गया हूँ। मैं आत्महत्या करके अपने बेकार जीवन को नष्ट करने आया हूँ।"सन्त ने पूछा, "तुम कितने दिनों से संघर्ष कर रहे हो?"
युवक  ने कहा, "मुझे पन्द्रह माह के लगभग हो गए। मुझे न तो कहीं नौकरी मिली है, न ही मैं किसी परीक्षा में सफल हो सका हूँ।"
सन्त ने कहा, "तुम्हें नौकरी भी मिल जाएगी एवं तुम सफल भी हो जाओगे कुछ दिन और प्रयास करो, निराश न हो।"
युवक ने कहा, “मैं किसी योग्य भी नहीं हूँ। अब मुझसे कुछ नहीं होगा।"
सन्त ने उसे एक कहानी सुनाई। सन्त ने कहा कि ईश्वर ने दो पौधे लगाए। एक बांस का, एक फर्न का (पत्तियों वाला)। फर्न वाले पौधे में कुछ ही दिनों में पत्तियाँ निकल आईं। फर्न का पौधा एक साल में काफी बढ़ गया, जबकि बांस (Bamboo) के पौधे में सालभर में कुछ नहीं हुआ। ईश्वर निराश नहीं हुआ। दूसरे वर्ष भी बांस के पेड़ में कुछ नहीं हुआ एवं फर्न का पौधा और बड़ा हो गया, लेकिन ईश्वर ने निराशा नहीं दिखाई। तीसरे वर्ष और इसी तरह चौथे वर्ष भी बांस का पेड़ वैसा ही रहा, उसमें कुछ नहीं हुआ, लेकिन फर्न का पौधा और बड़ा हो गया। ईश्वर फिर भी निराश नहीं हुआ। इसके कुछ दिनों बाद बांस का पौधा फूटा एवं देखते-देखते कुछ ही दिनों में ऊँचा हो गया। बांस के पेड़ को अपनी जड़ों को मजबूत करने में 4-5 वर्ष लग गए। सन्त ने युवक से कहा कि यह आपका संघर्ष का समय है, अपनी जड़ें मजबूत करने का समय है। आप इस समय को व्यर्थ नहीं समझें एवं निराश न हो। जैसे ही आपकी जड़ें मजबूत, परिपक्व हो जाएँगी. आपकी सारी समस्याओं का निदान हो जाएगा। आप खूब सफल होंगे, फूलेंगे और फलेंगे।

"आप स्वयं की तुलना अन्य लोगों से न करें, आत्मविश्वास न खोएँ। समय आने पर आप बांस के पेड़ की तरह बहुत ऊँचे हो जाओगे सफलता की बुलन्दियों पर पहुँचोगे।"

बात युवक की समझ में आ गई और वह पुन: संघर्ष के पथ पर चल दिया।

"Never lose hope and never give up or quit.Success will come to you sooner or later."

(मुझे और मेरे सभी सहपाठियों और मित्रों को समर्पित🙏)

Monday 11 May 2020

एक उत्तरभारतीय की व्यथा

(एक बार पूरा लेख अवश्य पढ़ें🙏)

              क्या हमने कभी सोचा है...आखिर ऐसी क्या वजह रही होगी जो उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के लोग इतनी बड़ी संख्या में महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में बसने के लिए मजबूर है? जब भी हमने इसका उत्तर जानने की कोशश की तब रोजी-रोटी, काम-धंधा, मजदूरी इत्यादि जैसे ही जवाब सामने आए।
                         लेकिन क्यों? क्या उत्तरप्रदेश और बिहार का अपना कोई इतिहास नहीं है! जिस माटी को राम, कृष्ण और बुद्ध ने पावन किया हो। जिस धरती पर गंगा, यमुना जैसी नदियाँ बहती हों। आखिर  वहाँ के लोग आज दर-दर भटकने को क्यों विवश हैं। यकीन नहीं होता कि जिस भूमि का इतना पावन और अद्भुत इतिहास हो वहाँ के लोग आज मारे-मारे फिर रहे हैं।
            इसका क्या कारण हो सकता है? मेरे हिसाब से तो इसका एक ही कारण है- सरकारों की नाकामी। अपने राजनीतिक लाभ के लिए आज तक यहाँ की सरकारों ने इन राज्यों का विकास ही नहीं होने दिया। उन्होंने केवल अपनी जेबें भरी और जातिवाद-वंशवाद को बढ़ावा दिया। और कुछ दोष तो उन लोगों का भी है जिनकी "चच्चा हमारे विधायक है" और "फलाना परधान अपना ही है" वाली सोच ने भ्रष्टाचार आदि को बढ़ावा दिया। जिसके कारण गरीबों का और अधिक शोषण होता गया। शायद इन्हीं कारणों से हमारे माता-पिता की पीढ़ी वाले लोगों ने अपनी पहचान और अपनी माटी को छोड़कर  दूसरे राज्यों में बसेरा करना शुरू कर दिया। खेती जैसे मुख्य पारम्परिक और समृद्ध व्यवसाय को छोड़कर शहरों में गुलामी करने को मजबूर हो गए। जिसके कारण इन्हें समय-समय पर अपमान के कडवें घूँट भी पीने पड़े।
                   आज हमें गर्व होता है कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों के विकास में उत्तरभारतीयों का एक विशेष योगदान है, परन्तु हमें इस बात का मलाल भी होना चाहिए कि हम अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ नहीं  कर पा रहें। जिस तरह हमने महाराष्ट्र को अपनी कर्मभूमि मानकर, यहाँ के भाई-बंधुओं को अपना मानकर यहाँ के विकास में योगदान दिया है। उसी प्रकार अब समय आ गया है कि हमें अपनी जन्मभूमि के लिए भी इसी प्रकार की मेहनत और लगन लगानी पड़ेगी जिससे हम सब मिलकर उत्तरप्रदेश और बिहार को एक समृद्ध और विकसित राज्य बना सके।
        जैसा कि कहा गया है,
     "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
            आशा है कि मेरी उम्र के कई नवयुवक होंगें जिनकी भी यही लालशा होगी कि वें अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ कर सकें। वो भी गाँवों में उद्योगों को बढ़ावा दिला सके और कृषि कार्य को और अधिक आधुनिक एवम उन्नत बना सकें, जिससे फिर किसी को शहरों की ओर पलायन न करना पड़े। आज हममे से कई लोग होंगे जिन्होंने हमारे माता-पिता के शहरों की ओर पलायन के कारण अपने गाँवों को खो दिया है, एक सुनहरे बचपन को खो दिया है। हमें चाहिए कि हम आने वाली पीढ़ी के साथ ऐसा न होने दें।
                आज हमारी माटी को हमारी आवश्यकता है, जो हम सब से अपना कर्ज अदा करने को कह रही है, आज हम सब नवयुवकों को मिलकर प्रण करना चाहिए कि हम अपना पूरा-पूरा योगदान दें। ताकि जो परिस्थिति आज उत्तपन्न हुई है वो भविष्य में कभी ना उत्तपन्न हों। जिस प्रकार आज मजदूरों को भूखे-प्यासे भटकना पड़ रहा है, अपने ही घर जाने के लिए मौत से लड़ना पड़ रहा है, मानव सभ्यता में आगे ऐसा कभी ना हो।

(नोट: एक उत्तरभारतीय होने के नाते इस लेख में मैने अपने व्यक्तिगत मत रखें है, यदि किसी को भी किसी भी प्रकार की ठेस पहुंची हो तो हृदय से क्षमा प्राथी हूँ।  महाराष्ट्र राज्य और यहाँ के बन्धुओं से तो मेरी किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं है बल्कि मैं तो इसे अपनी कर्मभूमि मानकर जीवन भर इसकी सेवा करने के लिए तत्पर रहूँगा।)
     धन्यवाद🙏

Friday 1 May 2020

"सनातन हिन्दू धर्म में प्रसार एवं एकता का अभाव"

एक बार अवश्य पढ़े।🙏

जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते देखता हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुस्लिम परिवारों की ये अच्छी चीज़ है कि वो अपना धर्म और अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी में ज़रूर देते हैं। कुछ पुचकार कर तो कुछ डराकर, लेकिन उनकी नींव में अपने बेसिक संस्कार गहरे घुसे होते हैं।

यही ख़ूबसूरती सिखों में भी है। एक बार छुटपन में किसी ने एक सरदार का जूड़ा पकड़ लिया था। उसने उसी वक़्त तेज़ आवाज़ में न सिर्फ समझाया ही नहीं, धमकाया भी था। तब बुरा लगा था, लेकिन आज याद करते है, तो अच्छा लगता है।

हिन्दू धर्म चाहें कितना ही अपने पुराने होने का दावा कर ले, पर इसका प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक सीमित होता जा रहा है। मैं अक्सर देखता हूँ कि मज़ाक में लोग किसी ब्राह्मण की चुटिया खींच देते हैं। वो हँस देता है।

एक माँ आरती कर रही होती है, उसका बेटा जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है, लड़का कूल-डूड है, उसे इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है।

बेटी इसलिए प्रसाद नहीं खाती कि उसमें कैलोरीज़ ज़्यादा हैं, उसे अपनी फिगर की चिंता है।

छत पर खड़े अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो लड़के हँसते हैं।

दो वक़्त पूजा करने वाले को हम सहज ही मान लेते हैं कि साला दो नंबर का पैसा कमाता होगा, इसीलिए इतना अंधविश्वास करता है। 'राम-राम जपना, पराया माल अपना' ये तो फिल्मों में भी सुना है।

इस पर माँ टालती हैं 'अरे आज की जेनरेशन है जी, क्या कह सकते हैं, मॉडर्न बन रहे हैं।'

पिताजी खीज के बचते हैं 'ये तो हैं ही ऐसे, इनके मुँह कौन लगे'।

नतीजतन बच्चों का हवन-पूजा के वक़्त हाज़िर होना मात्र दीपावली तक सीमित रह जाता है।

यही बच्चे जब अपने हमउम्रों को हर शनिवार गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर रविवार चर्च में मोमबत्ती जलाते देखते हैं, तो बहुत फेसिनेट होते हैं। सोचते हैं ये है असली गॉड, मम्मी तो यूंही थाली घुमाती रहती थी। अब क्योंकि धर्म बदलना तो पॉसिबल नहीं, इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं।

शायद हिन्दू अच्छे से प्रोमोट नहीं कर पाए। शायद उन्हें कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई। शायद आपसी वर्णों की मारामारी में रीतिरिवाज और हवन पूजा-पाठ 'झेलना' सौदा बन गया।

वर्ना...

सूरज को जल चढ़ाना सुबह जल्दी उठने की वजह ले आता है।

सुबह हवन-पूजा करना नहाने का बहाना बन जाता है।
और मंदिर घर में रखा हो तो घर साफ सुथरा रखने का कारण बना रहता है।
भजन बजने से जो ध्वनि होती है वो मन शांत करने में मदद करती है।
तो आरती गाने से कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ता है।
हनुमान चालीसा तो डर को भगाने और शक्ति संचार करने के लिए सर्वोत्तम है।
सुबह हवन करके निकलो तो पुरा बदन महकता हैं, टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है। प्रसाद में मीठा खाना तो शुभ होता है... भई, टीवी में एड नहीं देखते.?

संस्कार घर से शुरु होते हैं। जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं। इस भटकन में जब आपको कोई कुछ ग़लत समझा जाता हैं, तो आप भूल जाते हो कि आप उस सनातन सभ्यता का मज़ाक बना रहे हो, जिस पर आपका पुरा संसार टिका है, जिस पर आपके माता-पिता का विश्वास टिका है।

कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है, लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं दे कि  सत्य_सनातन_वैदिक_धर्म का मज़ाक बनाये।

कम से कम मेरे लिए तो हिन्दू होना कोई शर्म की बात नहीं रही। आपके लिए हो भी तो मज़ाक न बनाएं, चाहें जिसकी आराधना करें लेकिन धर्म को धिक्कारें नही, कमजोर ना बनाएं।

हर वर्ग के मेरे भाईयों से अनुरोध है कि जीवन मे एक बार श्रीमद्भागवत गीता अवश्य पढ़े, अपने बच्चों को रामायण के बारे में महाभारत के बारे में बताएं या फिर आजकल दूरदर्शन पर ज़रूर दिखाए।🙏🕉️

(नोट:- यह पोस्ट मुझे बेहद पसंद आयी इसी कारणवस मैंने इसे कॉपी किया है और इसे पोस्ट किया ताकि हम लोगों  को अपनी खामियां समझ आए।)

Saturday 28 March 2020

मजदूर की मजबूरी (कोरोना)

 इस वैश्विक महमारी के दौर में सरकारे विदेशी लोगों को भेजने के लिए विमानों का इंतज़ाम कर रही है ,जिन्होंने ने उन्हें मत तक नही दिया है और वो  मज़दूर गरीब लोग जो मत देते हैं ये सोच कर की अबकी बार हमारे हक की बात होगी । वो लोग भूखे प्यासे पैदल ही दर दर भटक रहे है ना ही कारखानों के मालिक सहारा दे रहे है और ना ही वो अपने घर को जा सकते हैं। इस आपात समय में मजदूरों को औरतों को सड़कों में बिना चप्पलों के चलते देखना, बच्चों को कंधे पर बैठाकर चलते देखना एक अजीब सा दर्द दे रहा है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद हमारा विकास सड़कों पर कीड़ों की तरह रेंग रहा है। हम हमेशा पाकिस्तान पर तंज कसते रह गए, कभी अपने गिरेबान में नहीं झांका हमने।हाँ सच है कि हमने तरक्की की है पर सिर्फ अमीरों ने गरीबों ने मज़दूरों ने नहीं। सिर्फ अमीर ही और अमीर हुए है,आज़ादी के बाद से तो गरीबी दर  और बढ़ी ही है पहले के मुकाबले। 
(हा सच है कि उनमें से कुछ लोगो ने घर जाने के लिए गलत तरीका अपनाया पर वो भी तो मजबूर हैं काम धंधा न होना खाने पिने का ठिकाना न होने से बेहतर है अपने घर को लौट जाना।)
(बीमारी लायी और फैलाई विदेशों में घूमने वाले लोगों ने और बेचारे गरीब अपने ही देश मे बेघर भटके)
(सरकार को इन सब की जिम्मेदारी लेते हुए इन गरीब लोगों को उनके घर तक पहुचाना चाहिए, पर इस बात का ख्याल रखते हुए की इनमे से कोई भी  corona positive न हो🙏)
(यह सब मेरा अपना व्यक्तिगत मत है ।)

Sunday 23 February 2020

मौत मैं मशहूर चाहता हूँ...

"मेरे दो - चार ख्वाब हैं...
जिन्हें मैं आसमां से दूर चाहता हूँ,
ज़िन्दगी चाहे गुमनाम रहे...
पर मौत मैं मशहूर चाहता हूँ।"

मेरा सब बुरा भी कहना...
पर सब अच्छा भी बताना,
मैं जब जाऊँ इस दुनिया से...
तो मेरी दास्ताँ सुनाना।

ये भी बताना की
कैसे समंदर जितने से पहले,
मैं हज़ारों बार
छोटी - छोटी नदियों से हारा था।
वो घर, वो ज़मीन दिखाना 
कोई मगरूर जो कहे
तो शुरुआत मेरी बताना।
बताना सफ़ऱ की दुश्वारियां मेरी
ताकि कोई जो
मेरे जैसी ज़मीन से आए
उसके लिए नदियों की धार 
हमेशा छोटी ही रहे,
और समंदर जितने  का ख्वाब
उसकी आंखों से कभी ना जाए।
पर उनसे मेरी गलतियाँ भी मत छुपाना 
कोई पूछे तो बता देना की 
किस - दर्ज़े का नकारा था
कह देना की झूठा आवारा था।
बताना ज़रूरत पे काम न आ सका,
वादे किए पर निभा न सका
इन्तेक़ाम सारे पूरे किए
मगर इश्क़ निभा न सका
बता देना सबको की 
वो मतलबी बड़ा था
पर हर बड़े मक़ाम पे 
अकेले तन्हा ही खड़ा था।

"मेरा सब बुरा भी कहना 
पर सब अच्छा भी बताना 
मैं जब जाऊँ इस दुनिया से 
तो मेरी दास्ताँ सुनाना।"

(बहुत ही सुंदर पक्तियां है पर अफ़सोस की यह मैंनें नहीं लिखी है। जिस किसी ने भी लिखा है, बहुत ही लाजवाब है। मैं सहृदय अभिनन्दन करता हुं उस व्यक्ति का। )

पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...