Monday 24 January 2022

अयोध्या जी : श्रीरामजन्म भूमि

               अयोध्या जी : श्रीरामजन्म भूमि


अयोध्या जी... कितना सुंदर और अलौकिक है ना यह नाम? नाम मात्र से ही जीवन में एक आशा दौड़ जाती है। हिंदू धर्म में आध्यात्मिकता का एक प्रमुख केंद्र, तीर्थ स्थल, सर्व पूरियों में विशिष्टता रखती यह 'अयोध्या पूरी' कई सालों से हिंदुओं के आस्था का केंद्र बनी हुई है। अनेकों बार बसने-उजड़ने की कहानी संजोए, कई आक्रमण झेले हुए आज भी यह नगरी अपनी प्राचीनता और भव्यता सहित विराजमान है। जिसके कण-कण में प्रभु 'श्रीराम' बसते हैं। सालों से विवादों में घिरे होने के बावजूद यह नगरी और नगरवासी आज भी 'रामराज्य' की संकल्पना में जीते हैं। अवध क्षेत्र में रहते प्रत्येक नगरवासी के मुख से आज के युग में भी चारों पहर 'राम नाम' ही सुनने को मिलना राम जी के प्रति उनकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास का ही परिणाम है।

इस नगरी के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व को देखते हुए देश-विदेश से लाखों दर्शनार्थी और पर्यटक यहाँ आते हैं और जीवन से जुड़े रहस्यों को भी समझने की कोशिश करते हैं। क्योंकि जीवन की व्याख्या धर्म से बेहतर शायद कहीं और नहीं मिल सकती। तो आइए आज हम भी चलते हैं 'अयोध्या जी'। अयोध्या जी यह भारत के उत्तरप्रदेश राज्य में बसी नगरी है। जो की यातायात के सभी साधनों से जुड़ी हुई है, जिसके कारण आप भारत के किसी भी हिस्से से यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं। यहाँ आने की यात्रा भी अपने आप में उल्लासपूर्ण होती है। एक बार अयोध्या नगरी में पहुंचने के बाद आपको चारों तरफ साधु-महात्मा और पंडितों का तांता लगा हुआ दिखेगा। जिनमें से कुछ पंडित तो केवल लुटेरों के भांति ही होते हैं। और हाँ यहीं से शुरू होती है आपके अयोध्या दर्शन की यात्रा। आप यहाँ से कई आकर्षक घाटों, मंदिरों, धार्मिक स्थलों के दर्शन कर सकते हैं।


मान्यता के अनुसार अयोध्याजी में प्रवेश करते ही आपको सबसे पहले हनुमान गढ़ी में हनुमान जी के दर्शन करने चाहिए और उनकी आज्ञा से अयोध्या नगरी और रामजन्मभूमि क्षेत्र व रामलला के दर्शन करने चाहिए। तो आइए हम चलते हैं हनुमान गढ़ी मंदिर। यह मंदिर एक टीले पर बसा है। मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए लगभग ७६ सीढ़ियों को चढ़ना होता है, जिससे हनुमान जी के भव्य दर्शन प्राप्त हो सकें। मंदिर के प्रांगण से हनुमान जी की प्रतिमा के अलौकिक दर्शन होना बेहद सुखद अनुभव होता है। यह मंदिर मानसिक शांति और आध्यात्मिकता का केंद्र है। इसके बाद हम क्रमशः कनक भवन, दशरथ महल, सीताजी की रसोई, इत्यादि के भी दर्शन कर सकते हैं और इन महलों, भवनों की भव्यता को देखकर आनंद का अनुभव करते हैं। यहाँ के इन महलों, भवनों और मंदिरों की स्थापत्य कला भी अपने आप में काफी अद्भुत है।


अब हम चलते हैं रामलला के दर्शन करने जिसकी शुरुआत होती है रामजन्मभूमि क्षेत्र से। जहाँ जाने के लिए आपको घंटों कतार में लगना होगा और सुरक्षा कारणों से आपकी सभी वस्तुएं जमा करानी होगी। रामलला के जयकारे की गूंज के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए सुरक्षाकर्मियों की निगरानी में आप जन्मभूमि क्षेत्र तक पहुंचते हैं। जहाँ आपको भव्य मंदिर निर्माण के कार्यों, नींव स्थल, आकर्षक स्तंभों, खंभों इत्यादि के दर्शन होते हैं। हालांकि भव्य मंदिर निर्माण कार्य अभी चल ही रहा है, जिससे आपको मंदिर के दर्शन नहीं होते। कुछ आगे बढ़ने पर आपको रामलला की प्रतिमा के दर्शन होंगे जिसकी स्थापना राममंदिर में होगी। रामलला की प्रतिमा के दर्शन करना ही जैसे त्रेता के साक्षात राम के दर्शन हो जाने के स्वरूप है। राम जी के दर्शन से सुख-शांति और आनंद की प्राप्ति होने के पश्चात आप अयोध्या जी में बसे अनेकों घाटों और सरजू मईया के दर्शन के लिए जा सकते हैं।

घाटों में सुप्रसिद्ध नयाघाट, अयोध्या जी के प्रमुख घाटों में से एक है। यहाँ घाट पर स्नान-ध्यान, मुंडन, अंतिम-संस्कार, इत्यादि धार्मिक कर्मकांड किए जाते हैं। घाट से ही आप सरजू मईया के पावन जल में स्नान कर अपने आप को दोष मुक्त करने का प्रण ले सकते हैं। पर्यटन की भावना से आए हुए लोगों के लिए यहाँ नौकाविहार एक अच्छा विकल्प हो सकता है। नौकाविहार से आप सरयू नदी के मध्य में जाकर अयोध्या नगरी में बसे घाटों के विहंगम दृश्य को देख सकते हैं, इन्हीं घाटों पर नित आरती होती है। जिसका साक्षी होने के लिए प्रत्येक दर्शनार्थी इच्छुक होता है। घाटों की इस शृंखला में झुनकी घाट, तुलसी घाट, राजघाट, इत्यादि भी प्रमुख हैं।

घाटों की पूजा-अर्चना और धार्मिक कर्मकांडों का अनुभव करने के पश्चात आप 'राम की पैड़ी' जा सकते हैं। कहते हैं अयोध्या जी आए और 'राम की पैड़ी' न देखा, तो आपने कुछ न देखा। 'राम की पैड़ी' पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया गया एक बहुत ही सुंदर स्थल है। जहाँ जल की धारा के एक ओर भव्य एवं प्राचीन इमारत और मंदिर स्थित हैं तो दूसरी ओर पर्यटकों के लिए सूंदर पार्क, उद्यान इत्यादि है। पिछले कुछ वर्षों से इसी 'राम की पैड़ी' पर विश्व प्रसिद्ध भव्य "दीपोत्सव" का भी आयोजन किया जाता है। 'राम की पैड़ी' की सुंदरता को देखते हुए यहाँ कुछ हद तक छात्र-छात्राएं और प्रेमी युगल भी समय बिताने के लिए आते रहते हैं। यहाँ आस-पास में कुछ स्टॉल और छोटे-छोटे फेरीवाले पर्यटकों की जरूरतों के उपयुक्त सामान बेचते हुए देखे जा सकते हैं। पर्यटन के विषय हेतु अयोध्याजी में 'राम की पैड़ी' सबसे सुंदरतम स्थान है। हालांकि संपूर्ण अयोध्या जी का धार्मिक महत्त्व तो है ही। साथ ही साथ पर्यटन का भी महत्व है। इन सब के अलावा अयोध्या जी में प्राचीन घरों को देखना भी अद्भुत है। जिनकी अवस्था अब बिल्कुल जीर्ण हो चुकी है। इनमें से कुछ तो खंडहर की भांति प्रतीत होते हैं। यूँ तो अयोध्या जी का वर्णन करने को तो शब्द ही कम पड़ जाए और लेख समाप्त ही न हो। परन्तु इस लेख की लंबाई आवश्यकता से अधिक न हो जाए इसलिए लेख को यहीं समाप्त करना पड़ रहा है।


तो कैसी लगी आपको यह अयोध्या जी के दर्शन की यात्रा। आशा करता हूँ कि इस लेख के माध्यम से आपको भी अयोध्या नगरी, रामलला, राम की पैड़ी और अनेकों घाटों के दर्शन का अनुभव और रस प्राप्त हुआ होगा। अपने विचार और अनुभव कमेंट्स में साँझा करें। प्रभु श्रीराम  सबका मंगल करें।
जय श्रीराम🚩

Monday 17 January 2022

"प्रेम मंजिल नहीं, यात्रा है। पाना नहीं, जीना है।"

        "प्रेम मंजिल नहीं, यात्रा है। पाना नहीं, जीना है।"

         प्रेम में पड़ा व्यक्ति यात्री हो जाता है। एक ऐसे राह का यात्री जिसकी कोई मंजिल न हो। केवल चलते ही जाना है,प्रेम डगर का मुसाफिर हुए रहना है। सच्चे प्रेम में पड़े पुरूष को कुछ हद तक तो मंजिल की चाह होती भी नहीं है, क्योंकि प्रेम अपने आप में ही एक मंजिल की भांति है। आपके हृदय में किसी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम का भाव उत्पन्न होना ही प्रेम की मंजिल है। प्रेम का भाव उन्ही हृदयों में वास करता है, जो प्रेम को भक्ति,साधना या श्रद्धा के स्वरूप में देखता हो। क्योंकि प्रेम को काम रूप में देखता पुरुष,प्रेम कभी नहीं जी सकता। वह काम की प्राप्ति चाहे कितनी ही कर ले परन्तु भाव-विभोर कर देने वाला प्रेम कभी नहीं पा सकेगा। वह अपने पौरुष के बल से प्रकृति(स्त्री) को उत्तेजित तो कर सकता है, पर उसका प्रेम रूपी आशीर्वाद नहीं पा सकता। प्रेम की यही व्याख्या सामान्यतः स्त्रियों पर भी लागू होनी चाहिए। केवल दैहिक सौंदर्य के होने मात्र से वे अनेकों पुरुषों का शारीरिक और आर्थिक भोग तो कर सकेंगी परंतु एक आदर्श पुरुष का प्रेम नहीं पा सकेंगी। केवल उपभोगवाद से इच्छाएँ और ऐंद्रिक तृप्ति हो सकती है। आत्मीय तृप्ति के लिए स्त्री अथवा पुरुष को चाहिए कि उसे एक वास्तविक प्रेम की प्राप्ति हो। 
      यहाँ प्रेम का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष प्रेम नहीं होना चाहिए। प्रेम संसार की एक अलौकिक शक्ति है, जिसके माध्यम से मनुष्य किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। मनुष्य जिस किसी से भी सम्पूर्ण प्रेम करेगा। वह उसे हासिल कर सकेगा। चाहे वह कोई व्यक्तिगत प्रेम हो स्त्री या पुरुष। चाहे स्वयं ईश्वर ही क्यों न हो, मनुष्य प्रेम की शक्ति से उन्हें भी प्राप्त कर सकता है। संसार में ऐसे कई साक्षात उदाहरण मौजुद हैं,जिन्होंने अपने प्रेम के बल से ईश्वर की प्राप्ति की है।
प्रेम को भक्ति में रूपांतरित कर तुलसीदास जी और बालक ध्रुव ने भी हरि चरणों की प्राप्ति की है। अपने लक्ष्यों के प्रति अथाह प्रेम से ही कई महापुरुषों ने सफलता पाई है और  इतिहास रचे हैं। प्रेम ही संसार का एकमात्र सबसे प्राचीन और अनन्त भाव हो सकता है, जिसका अंत होना नामुमकिन है। क्योंकि यदि प्रेम के भाव का अंत हो गया तो संसार का भी अंत निश्चित हो सकता है। प्रेम में तो विष को अमृत करने देने की शक्ति होती है।

इसी के संदर्भ में कबीरदास जी कहते हैं :-
१.
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
२.
प्रेम पियाला जो पिए शीष दक्षिणा देय,
लोभी शीष न दे सके नाम प्रेम का लेय।

(यह लेखक की व्यक्तिगत विचारधारा है। प्रत्येक का मद और विचार भिन्न हो सकता है। आप अपनी राय जरूर कमेंट्स में बताए।)


Monday 10 January 2022

ईश्वरीय आकर्षण और विकर्षण के सिद्धांत

जीवन में जाना कहां है, यह आपको ही तय करना है।

          अस्तित्व में आकर्षण और विकर्षण का भाव सन्निहित है। इसे विज्ञान की भाषा में गुरुत्वाकर्षण कहा गया है। यह आकर्षण केवल धरतो ग्रह और मनुष्य में हो नहीं होता। यह हमारी प्रकृति और अस्तित्व का भी केंद्रीय भाव है। ईश्वरीय चेतना में यह दोहरा भाव होता है। गुरुत्वाकर्षण एक ओर का चिाव नहीं है, बल्कि दो वस्तुओं के बीच का खिंचाव है। गुरुत्वाकर्षण के नियम को ठीक से समझ लेते हैं तभी ईश्वरीय खिंचाव या आकर्षण को सही तरीके से समझ सकते हैं।

             चांद और पृथ्वी के संदर्भ में पृथ्वी की शक्ति ज्यादा है तो वह वस्तुओं को अपनी और ज्यादा तेजी से खींच पाती है। हर दो वस्तुओं में आकर्षण और उसमें एक दूसरे को अपनी ओर खींचने या आकर्षित करने की इच्छा सन्निहित होती है। जीवन में प्रत्येक चीज इंद्र के बिना घटती नहीं है। जैसे कि पेड़ से फल नीचे गिरता है, उसी प्रकार पेड़ पर फल और फूल भी आते हैं। न्यूटन के समकालीन चिंतक रस्किन ने इस पर सवाल उठाया कि आखिर यह किस कारण से आते हैं। ये ऊपर कैसे पहुंच जाते है? इतना ही नहीं बांस और ताड़ जैसे पांच सौ फोट लंबे पेड़ों पर ऊपर पत्तियों में जल कैसे पहुंचता है?

             ईश्वर अपने अनुग्रह से अनुगृहित करने के लिए नदी बनते हैं, ताकि उसके समीप आनेवालों को जल रूपी अमृत का पान करा सकें। कभी वह पर्वत बन जाते हैं ताकि प्रेम के शिखर का दर्शन करा सकें, प्रेम की विशालता के लिए सागर बन जाते हैं। फिर उस ईश्वर का दैवीय प्रेम अनंत आत्माओं के हृदय में क्रियाशील होकर धड़कता रहता है। ईश्वर का प्रसाद फूलों में सुगंध, पक्षियों में कलरव, दूसरों के हृदय में प्रेम को बढ़ाता है तो उसका अनुग्रह प्रकट होता है। सुबह से रात में सोने तक ईश्वर का प्रसाद मिलता है लेकिन यह सूक्ष्म और रहस्यमय होता वह प्रतिदिन भोजन से मोस, रक्त, मज्जा, हड्डी और मस्तिष्क का निर्माण करता है, हमारा विकास करता है। लेकिन हम समझते हैं कि भोजन के कारण ही हम जीवित है।

             सृष्टि में आकर्षण का नियम अंतनिहित है। जब दो वस्तुएं हिलने के लिए स्वतंत्र हो और ये एक दूसरे की ओर खिंचे तो गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव दिखाई देता है। भौतिक विज्ञान को परिभाषा बताती है कि गुरुत्वाकर्षण यह शक्ति है जो दो भौतिक पिंडों के बीच होती है और जिसके कारण प्रत्येक पिंड दूसरे पिंड को एक-दूसरे की ओर खींचते हैं। यह नियम सार्वभौमिक है। पृथ्वी सूर्य तथा आकाश सहित सभी वस्तुओं में समान रूप से यह बल होता है। इस कारण आकाश के सूर्य, चंद्र, तारे और अन्य खगोलीय पिंड एक-दूसरे के इर्द-गिर्द चक्कर काटते रहते हैं और अपनी और दूसरे पिंडों को भी खींचते हैं। बाद में वैज्ञानिकों ने खोज कर निकाला कि नीचे खींचने की शक्ति प्रैविटेशनल फोर्स है जबकि ऊपर खींचने की शक्ति लैविटेशनल फोर्स है। अध्यात्म में संतों ने इस शक्ति को प्रसाद कहा।

          ठीक इसी प्रकार ईश्वर अपनी अनंत चेतना के प्रसाद के माध्यम से अपनी ओर खींचते हैं, तो दूसरी ओर माया यानी हमारी अज्ञानता दूसरी ओर खींचती है। मुहता कारण हम ईश्वरीय आकर्षण के विभिन्न केंद्रों की उपेक्षा करते हैं और अपने को नीचा गिराते हैं। हम अपनी इच्छाओं और ऐट्रिक सुख के करण जन्म-मरण के अनंत चक्र में फंसे रह जाते हैं, ईश्वर से दूर होते जाते हैं।

:-मयंक मुरारी

Thursday 6 January 2022

आत्मग्लानि

आत्मग्लानि

            आत्मग्लानि... जी हाँ आत्मग्लानि। आप में से काफी लोग सोच रहे होंगे कि ये क्या है? तो मैं आपको बता दूं कि यह पूरा लेख पढ़ने के बाद आप खुद ही इस आत्मग्लानि का अर्थ समझ जाएंगे या हो सकता है आपमें से कुछ को इसका अनुभव भी हो जाए।हालांकि इस लेख में कुछ आपत्तिजनक शब्द और भाषा का प्रयोग हुआ है। ऐसा इसलिए क्योंकि लेख का मुद्दा ही कुछ ऐसा है जिसकी सत्यता और परिपूर्णता के लिए इस प्रकार की लेखनी अपनानी पड़ी ताकि लेख को सचमुच में युवावर्ग के दर्पण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
     चलिए शुरुआत करते हैं... अक्सर छात्र १६-१७ की आयु में जब स्कूली शिक्षा समाप्त कर कॉलेजों में प्रवेश करते हैं। कॉलेजों की चकाचौंध और कुछ अनचाही आधुनिकता की दौड़ में फंस जाते है। उन्हें शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण कॉलेज के आधुनिक और भोगी जीवन में बना रहना ज्यादा पसंद आता है और ऐसा करने के लिए वे किसी भी हद तक चले जाते हैं। इन्हीं शौकों में से एक है बॉयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड बनाना।जिसका वास्तविक मकसद केवल सेखी बघारना और मौज-मस्ती ही होता है। जिसमें प्रेम का कोई स्थान नहीं होता। हालांकि कुछ साल साथ बिताने और बढ़ती उम्र में हार्मोन्स के खेल से यही तथाकथित प्रेमी आगे चलकर केवल और केवल अपनी शारीरिक संतुष्टि के लिए छुप-छुपाकर सम्भोग भी कर लेते हैं। जो कि एक सभ्य समाज में निषेध है, हालांकि आज का युवा वर्ग इसे मानता तो नहीं है और कॉलेजों में बने सच्चे-झूठे प्रेमी से संभोग कर ही लेते हैं। कुछ जोड़े एक-दूसरे को बहला-फुसलाकर यह सब करते हैं तो कुछ पहले से ही एक प्रकार का करारनामा कर लेते हैं कि जब तक एक-दूसरे की शारिरिक जरूरत है तब तक हम साथ हैं वरना नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि इसी दौरान कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इसको जीवन का आदर्श प्रेम मानकर अपना तन-मन सौंपते हैं और अपने साथी को अपना जीवन सौंपने को तैयार हो जाते हैं। तो इनमें से ही कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके लिए यह सब केवल एक खेल और मौज-मस्ती होती है उन्हें किसी आदर्श और निष्ठा से कोई मतलब नहीं होता।
               अच्छा अब जब तक कॉलेज जीवन था तब तक तो यह सब ठीक लगता है इन्हें। परन्तु जैसे ही उम्र २२-२४ की होती है आगे एक लंबा जीवन, भविष्य और जिम्मेदारी दस्तक देती है। उसी वक्त ये तथाकथित प्रेमी जोड़े अपना असली रंग दिखाना शुरू करते हैं। जब बात इनके प्रेम को विवाह का रूप देने की आती है तब इनके घरवाले नहीं मानते तो कभी जात-पात आड़े आती है। कभी सफलता-विफलता तो कभी करियर। अब जो पिछले ५-६ सालों से कसमें खा रहे थे। दिन-रात साथ-साथ सो-उठ रहे थे। वो सब याद नहीं आता। अब इन्हें ये समझ क्यों नहीं आता कि उस समय भी तो हमारी जात एक नहीं थी जब हम साथ बिस्तर में थे। उस समय भी तो हमारे परिजन नहीं मानते हमारा रिश्ता। और अंततः केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कॉलेजों में शुरू की गई प्रेम कहानी या शारिरिक रिश्ते का अंत होता है। अब उस व्यक्ति के लिए तो यह सब कुछ काफी सरल था जिसने शुरू से ही इसे एक खेल माना होगा। अब चाहे वो लड़की हो या कोई लड़का। पर यह सब उस व्यक्ति के लिए एक जबरदस्त आघात की तरह होता है जिसने इसे प्रेम मानकर अपना तन और मन सौंप दिया था और संबंध या कहें की संभोग के लिए सहमति दी थी। क्योंकी एक वक्त के बाद जब बात किसी और व्यक्ति के साथ उसके विवाह की होती है तो वह अपने आप से उलझ जाता है और यही वो दौर है जहां से शुरू होती है उसे आत्मग्लानि।
                       उसे हर पल लगने लगता है की उसने जीवन में कुछ तो गलत कर दिया है। उसके जीवन में कुछ तो ऐसा था जो उसने एक गलत व्यक्ति को सौंप दिया था या उसके साथ साँझा किया था और अब वही वो दुबारा एक नए व्यक्ति के साथ फिर से साँझा नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे उसने खो दिया है। अब वो उतनी ही निर्भीकता से यह नहीं स्वीकार कर पाता की वो अभी भी पहले की तरह ही है। जी हाँ... यहां बात की जा रही है वर्जिनिटी या यूँ कहें की लॉयल्टी की। उसे महसूस होने लगता है की अब जिस व्यक्ति के साथ उसका विवाह होने जा रहा है। जिसके साथ उसे अब अपना सम्पूर्ण जीवन निर्वाह करना है। सारे सुख-दुख का भागी होना है। असल में सिर्फ उसी व्यक्ति का मेरे तन-मन पर अधिकार होना चाहिए था जो की मैनें तो पूर्व में ही किसी और को सौंप दिया था। बहरहाल कुछ लोगों के विषय में यह केवल अपवाद है क्योंकि उनके अंतर्मन में कभी भी आत्मग्लानि नहीं उत्त्पन्न हो सकती। ऐसा इसलिए की उनका एकमात्र उद्देध्य सम्भोग होता है। अब वो किस के साथ हो रहा है और किस उम्र या अवस्था में हो रहा है। उन्हें इन सब से कोई फर्क नही पड़ता। परन्तु एक सहृदय और प्रेमी व्यक्ति के लिए उसके जीवन में यह एक बहुत महत्तवपूर्ण बात होती है। एक सच्चे प्रेमी मनुष्य के पास अपने तन-मन (जो की सबसे पवित्रम वस्तु है) के अलावा और कुछ नहीं होता अपने जीवनसाथी को उपहार स्वरूप भेंट करने को और वो उसे भी खो चुका होता है, एक ऐसे प्रेमी के लिए जिसका प्रेम से कोई दरकार ही न हो।
              हालांकि संभव है की ऐसा कुछ न भी होता हो। परन्तु संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके साथ ऐसी घटनाएं होती हैं और उनमें आत्मग्लानि  उत्त्पन्न होती है और ऐसा होनी भी चाहिए। क्योंकि पछतावा भी केवल उसी व्यक्ति को हो सकता है जिसके हृदय में ईश्वररूपी प्रेम का वास हो।

अंत में कुछ पंक्तियां:-

खाते हैं जुठन,
थाली में निवाला अपने हिस्से का जानकर।
कुछ शख्स जीते है ,
विवाह को ही सच्ची मोहोब्बत का पर्याय मानकर।

यूँ देह की चाह में
मोहोब्बतों को बदनाम न करो।
बंदिशों से खुलकर साथ दे न सको तो
यूँ बन्द कमरों में मोहोब्बतों को अंजाम न करो।

(नोट:- लेख के विषय में आपके क्या विचार है कमेंट्स में जरूर साँझा करें। किसी को लेख के विषय वस्तु या शब्दावली से कोई आपत्ति हो तो जरूर सूचित करें। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इसका किसी व्यक्ति, वर्ग या समूह से कोई सरोकार नही है। सभी की अपनी निजी जिंदगी है जो जैसा चाहे वैसा जी सकता है।)
धन्यवाद!
                                :- संदीप प्रजापति

Tuesday 4 January 2022

प्रतीक्षा...

प्रतीक्षा...

          प्रतीक्षा... कितना छोटा शब्द है ना ? तीन अक्षरों का यह छोटा-सा शब्द इतनी लंबी सी प्रतीक्षा को समेटे हुए है कि कभी-कभी सम्पूर्ण मानव जीवन ही कम पड़ जाए।
                 हमें जीवन में हर पल कभी न कभी किसी न किसी चीज के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इस अलौकिक संसार में आने से लेकर संसार से मुक्ति पाने तक हम प्रतीक्षा में ही रहते हैं। वैसे जीवन में प्रतिक्षाओं का होना भी आवश्यक है वरना वक्त से पहले मिली चीजों का मनुष्य उचित सम्मान नहीं कर पाता। प्रतीक्षा मनुष्य को प्रत्येक वस्तु और विचार का सम्मान करना सिखाती है। प्रतीक्षा में तपकर पला व्यक्ति ही जीवन के गूढ़ रहस्यों को जानकर परिपक्व हो सकता है।
            हालांकि प्रतिक्षाओं का अंत होना निश्चित होता है, परन्तु जीवन के कुछ मुद्दों जैसे कि प्रेम के मामले में कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। प्रेम में की गई कुछ प्रतिक्षाएँ सही समय तक सफल हो जाती हैं तो कुछ प्रतिक्षाएँ जीवन उपरांत भी चलती रहती हैं और तलाशती हैं वो अपने प्रतिक्षाओं का अंत ब्रह्मांड के अनन्त छोर में। प्रेम में की गई प्रतिक्षाएँ गर एक उचित समय तक न मिल जाए तो व्यक्ति को ऐसी प्रतीक्षा से केवल अवसाद और निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलता। तो कभी-कभी अत्यधिक प्रतिक्षावान होने से केवल जूठन ही हाथ लगता है, प्रेम नहीं। खुद को निष्ठावान बनाए हुए, किसी के प्रति प्रेम पालना और प्रतीक्षा करना की वह व्यक्ति भी कभी आपके प्रेम को समझेगा। जबकि वह व्यक्ति आपके प्रेम का भागी होना स्वीकार ही नहीं कर सकता। इस प्रकार की प्रतीक्षा केवल मूर्खता हो सकती है। प्रतीक्षा का एक सही समय पर अंत हो जाना ही एक सुखद जीवन का आदर्श है। यूँ ही नहीं कहा गया है कि प्रतीक्षा में बिता एक-एक पल सदियों के बराबर होता है।
                  जिस प्रकार मेघों के बरसने से मोर की प्रतीक्षा और चन्द्रमा की चांदनी से चकोर की प्रतीक्षा का अंत होता है। उसी प्रकार मनुष्य जीवन में एक निष्ठावान प्रेमी के प्रेम पाने की प्रतीक्षा का अंत अपने प्रेमी द्वारा प्रेम पाकर ही हो सकता है।

अंत में एक पंक्ति:

अपनी सारी इच्छाओं को
मारकर अनिच्छा कर रहा हूँ,
पगली एक तेरा प्रेम पाने को
हर पल प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

                                                :- संदीप प्रजापति

(एक छोटा सा लेख हर उस प्रेमी व्यक्ति को समर्पित जो अपने जीवन का अमूल्य समय और भाव किसी व्यक्ति से निष्ठावान प्रेम पाने की प्रतीक्षा में बिता रहे है।)



पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...