Monday 17 January 2022

"प्रेम मंजिल नहीं, यात्रा है। पाना नहीं, जीना है।"

        "प्रेम मंजिल नहीं, यात्रा है। पाना नहीं, जीना है।"

         प्रेम में पड़ा व्यक्ति यात्री हो जाता है। एक ऐसे राह का यात्री जिसकी कोई मंजिल न हो। केवल चलते ही जाना है,प्रेम डगर का मुसाफिर हुए रहना है। सच्चे प्रेम में पड़े पुरूष को कुछ हद तक तो मंजिल की चाह होती भी नहीं है, क्योंकि प्रेम अपने आप में ही एक मंजिल की भांति है। आपके हृदय में किसी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम का भाव उत्पन्न होना ही प्रेम की मंजिल है। प्रेम का भाव उन्ही हृदयों में वास करता है, जो प्रेम को भक्ति,साधना या श्रद्धा के स्वरूप में देखता हो। क्योंकि प्रेम को काम रूप में देखता पुरुष,प्रेम कभी नहीं जी सकता। वह काम की प्राप्ति चाहे कितनी ही कर ले परन्तु भाव-विभोर कर देने वाला प्रेम कभी नहीं पा सकेगा। वह अपने पौरुष के बल से प्रकृति(स्त्री) को उत्तेजित तो कर सकता है, पर उसका प्रेम रूपी आशीर्वाद नहीं पा सकता। प्रेम की यही व्याख्या सामान्यतः स्त्रियों पर भी लागू होनी चाहिए। केवल दैहिक सौंदर्य के होने मात्र से वे अनेकों पुरुषों का शारीरिक और आर्थिक भोग तो कर सकेंगी परंतु एक आदर्श पुरुष का प्रेम नहीं पा सकेंगी। केवल उपभोगवाद से इच्छाएँ और ऐंद्रिक तृप्ति हो सकती है। आत्मीय तृप्ति के लिए स्त्री अथवा पुरुष को चाहिए कि उसे एक वास्तविक प्रेम की प्राप्ति हो। 
      यहाँ प्रेम का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष प्रेम नहीं होना चाहिए। प्रेम संसार की एक अलौकिक शक्ति है, जिसके माध्यम से मनुष्य किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। मनुष्य जिस किसी से भी सम्पूर्ण प्रेम करेगा। वह उसे हासिल कर सकेगा। चाहे वह कोई व्यक्तिगत प्रेम हो स्त्री या पुरुष। चाहे स्वयं ईश्वर ही क्यों न हो, मनुष्य प्रेम की शक्ति से उन्हें भी प्राप्त कर सकता है। संसार में ऐसे कई साक्षात उदाहरण मौजुद हैं,जिन्होंने अपने प्रेम के बल से ईश्वर की प्राप्ति की है।
प्रेम को भक्ति में रूपांतरित कर तुलसीदास जी और बालक ध्रुव ने भी हरि चरणों की प्राप्ति की है। अपने लक्ष्यों के प्रति अथाह प्रेम से ही कई महापुरुषों ने सफलता पाई है और  इतिहास रचे हैं। प्रेम ही संसार का एकमात्र सबसे प्राचीन और अनन्त भाव हो सकता है, जिसका अंत होना नामुमकिन है। क्योंकि यदि प्रेम के भाव का अंत हो गया तो संसार का भी अंत निश्चित हो सकता है। प्रेम में तो विष को अमृत करने देने की शक्ति होती है।

इसी के संदर्भ में कबीरदास जी कहते हैं :-
१.
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
२.
प्रेम पियाला जो पिए शीष दक्षिणा देय,
लोभी शीष न दे सके नाम प्रेम का लेय।

(यह लेखक की व्यक्तिगत विचारधारा है। प्रत्येक का मद और विचार भिन्न हो सकता है। आप अपनी राय जरूर कमेंट्स में बताए।)


No comments:

Post a Comment

पुरुष

                            पुरुष                 पुरुषों के साथ समाज ने एक विडंबना यह भी कर दी की उन्हें सदा स्त्री पर आश्रित कर दिया गया। ...